हाल में हुए विधानसभा चुनाव में आम आदमी महंगाई की ही शिकायत कर रहा था। टीवी पर लोग आलू, प्याज, घी और दाल की कीमतें बताते नजर आते थे। हालांकि चुनावी पंडित हमेशा का चुनाव राग ही गा रहे थे, लेकिन कांग्रेस की हार में भ्रष्टाचार से ज्यादा महंगाई का हाथ रहा। हाल में महंगाई कुछ कम हुई हैं, लेकिन सभी दलों के लिए यह चेतावनी है कि आम आदमी महंगाई के दंश को भूलने वाला नहीं है और यह आगामी आम चुनाव में नजर आएगा।
अर्थशास्त्रियों को भी यह समझ में नहीं आ रहा है कि जब दुनियाभर में कीमतें स्थिर हैं तो भारत में उपभोक्ता वस्तुओं के दाम पिछले पांच सालों से 10 फीसदी प्रतिवर्ष की दर से क्यों बढ़ रहे हैं। यहां तक कि गरीब, उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भी कीमतें भारत की तुलना में आधी दर से बढ़ रही हैं। मुद्रास्फीति एक जटिल अवधारणा है और इसके पीछे कई कारण होते हैं, लेकिन विशेषज्ञों को यह स्पष्ट हो गया है कि भारत में इसकी वजह वे ही खराब नीतियां हैं, जिनकी वजह से हमारी आर्थिक वृद्धि दर नीचे आई है। इन नीतियों ने उत्पादन बढ़ाए बिना भारी सरकारी खर्च को प्रोत्साहन दिया है। मतलब बाजार में चीजें कम हैं और पैसा बहुत उपलब्ध है। महंगाई की यही वजह है।
यूपीए-2 की इस सरकार ने ग्रामीणों की जेब में विशाल फंड रख दिए हैं। इस तरह पिछले पांच वर्ष में गांवों में मजदूरी 15 फीसदी प्रतिवर्ष की अप्रत्याशित दर से बढ़ी है। किसानों के लिए हर साल 'दिवाली धमाका' होता है। अनाज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य, उर्वरक और बिजली के लिए भारी सब्सिडी, कई राज्यों में पानी-बिजली लगभग मुफ्त। इसके अलावा कर्ज माफी!
किसी फलती-फूलती अर्थव्यवस्था में मजदूरी का बढऩा अच्छी बात होती है, जब वे बढ़ती हुई मांग प्रदर्शित करती हों। कुछ हद तक भारत के लिए यह सही है, जहां 2011 तक आर्थिक वृद्धि और समृद्धि का 'स्वर्ण युग' रहा। इस बढ़ती हुई आय ने लोगों की खान-पान की आदतों को भी बदल दिया। अब वे अनाज कम और प्रोटीन, फल तथा सब्जियां ज्यादा खाने लगे। किंतु ग्रामीण मजदूरी में बढ़ोतरी 'मनरेगा' में फर्जी कामों का भी नतीजा है। ऐसे काम जिनसे कोई उत्पादकता नहीं बढ़ती। यदि यही पैसा कारखानों, सड़कों और बिजली संयंत्रों में लगाया गया होता तो नतीजा उत्पादकता के साथ नौकरियों में बढ़ोतरी के रूप में नजर आता। इसी तरह डीजल, उर्वरकों, बिजली और पानी पर सब्सिडी देने की बजाय यही पैसा उत्पादक चीजें निर्मित करने में लगाया जाता तो महंगाई पर लगाम लगती। लोगों को टिकाऊ रोजगार मिलता और उनका जीवनस्तर ऊंचा उठता।
महंगाई का समाधान है आर्थिक वृद्धि को लौटाना। सरकार को गलती का अहसास हो गया है, लेकिन बहुत देर हो चुकी है। अब यह हताशा में उन परियोजनाओं को हरी झंड़ी दिखाने की कोशिश कर रही है, जो बरसों से लाल और हरी फीताशाही में अटकी पड़ी है। किंतु निवेश को नौकरियों व आर्थिक वृद्धि में बदलने में वक्त लगेगा। मगर इस सरकार ने सैकड़ों परियोजनाएं रोककर क्यों रखीं? जवाब यह है कि पर्यावरण की रक्षा करने के लिए! अब हर सरकार को पर्यावरण की रक्षा करनी होती है, लेकिन इसके लिए कोई सरकार 780 बड़ी परियोजनाएं नहीं रोकती और वह भी कई-कई बरस। जब से पर्यावरण मंत्री को हटाया गया है, अखबार उनके घर में पाई गईं दर्जनों फाइलों की धक्कादायक खबरों से पटे पड़े हैं। इन फाइलों को पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी मिल चुकी थी।
इन पर सिर्फ पर्यावरण मंत्री के दस्तखत होने थे। कई मामलों में तो ये फाइलें महीनों से दस्तखत का इंतजार कर रही थीं। यह स्तब्ध करने वाला तथ्य है कि कोई एक व्यक्ति पूरे राष्ट्र को कितना नुकसान पहुंचा सकता है, इसलिए अचरज नहीं कि भारत को बि•ानेस करने के लिहाज से निकृष्टतम देशों में शामिल किया जाता है। सौभाग्य से खाद्य पदार्थों में महंगाई पर तेजी से काबू पाने के कुछ तरीके हैं। एक तरीका तो यही है कि भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में सड़ते अनाज में से कुछ लाख टन बाजार में जारी कर दिया जाए। इससे भारतीय खाद्य निगम पर से अनाज के भंडारण का बोझ तो कम होगा ही अनाज की कीमतें भी नीचे आएंगी।
दूसरा काम सरकार कृषि उत्पाद बाजार समितियों (एपीएमसी) को खत्म करने का कर सकती है, जो छोटे किसानों को संरक्षण देने की बजाय मंडियों में थोक बाजार के कार्टेल की तरह काम करती हैं। कई अन्य खराब आर्थिक नीतियों की तरह एपीएमसी भी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समाजवादी दिनों का असर है।
थोक बाजार को मुक्त करने से व्यापारी और किसान आजादी से बिक्री और खरीदी कर सकेंगे, जिससे बाजार में स्पद्र्धा पैदा होगी। इससे किसानों को फायदा होने के साथ उपभोक्ता को भी सस्ता अनाज मिलेगा, क्योंकि सुपर मार्केट बिचौलियों को दरकिनार कर इसका फायदा ग्राहकों तक पहुंचाएंगे। अर्थशास्त्री बरसों से एपीएमसी को खत्म करने गुहार लगा रहे हैं। अब राहुल गांधी को इस तथ्य का पता चला है और उन्होंने इसमें खुद रुचि ली है। संभव है कांग्रेस शासित राज्यों में एपीएमसी खत्म हो जाए। हालांकि प्रभावशाली स्थानीय नेता एपीएमसी को नियंत्रित करते हैं। अब समय ही बताएगा कि राहुल गांधी इन ताकतवर निहित स्वार्थी तत्वों पर अंकुश लगा पाते हैं अथवा नहीं।
आम आदमी पार्टी को भी दिल्ली के पास आजादपुर मंडी में एपीएमसी को खत्म करने की पहली कार्रवाई करनी थी। यह फलों व सब्जियों की कीमतों पर लगाम लगाकर ग्राहकों को तत्काल राहत दे सकती थी, लेकिन इसने उलटा ही किया। इसने सुपर बाजारों में विदेशी निवेश को खत्म करने की कार्रवाई की, जिससे आम आदमी सस्ती चीजें मिलने की संभावनाओं से वंचित हो गया। उसे यह अहसास नहीं है कि दुनियाभर में आम आदमी ही सुपर बाजारों में खरीदी करता है, क्योंकि वहां उसे कम कीमत पर चीजें मिल जाती हैं। इसके अलावा 'आप' के समर्थक किसी गंदी सी किराना दुकान में काम करने की बजाय सुपर बाजारों में काम करना पसंद करेंगे।
हमारी तीन प्रमुख पार्टियों में से लगता है कि केवल कांग्रेस को यह समझ में आया है कि एपीएमसी सुधार और सुपर बाजारों में विदेशी निवेश से महंगाई को काबू में किया जा सकता है। भाजपा ने आम आदमी के खिलाफ और व्यापारी के पक्ष में भूमिका ली है।
यह तो खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की भी विरोधी है। बड़ी अजीब बात है कि 'आप' का नेतृत्व अवसरों की तलाश कर रहे इसके महत्वाकांक्षी युवा समर्थकों की दृष्टि से नहीं सोच रहा है। यह तो पुराने वामपंथ के गरीबी वाले विचारों में फंसा हुआ है। वे विचार जिन्होंने भारत को अंडरअचीवर बनाए रखा। यह देखते हुए कि आगामी चुनाव में महंगाई का मुद्दा बड़ी भूमिका निभाएगा, क्या कांग्रेस अपनी अनुकूल स्थिति को वोटों में तब्दील कर पाएगी? अब यह तो वक्त ही बताएगा।