यदि भारतीयों ने अगस्त 1947 में आजादी और जुलाई 1991 में आर्थिक स्वतंत्रता हासिल की थी तो अब मई 2014 में उन्होंने गरिमा हासिल की है। नरेंद्र मोदी की जोरदार जीत का यही महत्व है। यदि आप मोदी को सत्ता में लाने वाले मतदाता को जानना चाहते हैं तो आपको एक ऐसे युवा की कल्पना करनी पड़ेगी जो हाल ही गांव से स्थानांतरित होकर किसी छोटे शहर में आया है। उसे अभी-अभी अपनी पहली नौकरी और पहला फोन मिले हैं और जिसे अपने पिता से बेहतर जिंदगी की तमन्ना है। मोदी के संदेश के आगे वह अपनी जाति व धर्म भूल गया, जिसे उसने अपने गांव में ही छोड़ दिया है। उसमें आत्मविश्वास पैदा हुआ और भविष्य के लिए उम्मीद जगी। जब नतीजे घोषित हुए तो हमारे युवा प्रवासी को अहसास हुआ कि उसने अपनी मेहनत से सफल हुए एक चायवाले के बेटे को देश के सर्वोच्च पद के लिए चुनने में योगदान दिया है। इस अहसास ने उसे गरिमा प्रदान की है।
अन्य सभी राजनीतिक दलों ने हमारे महत्वाकांक्षी मतदाता को उस रूप में न लेकर परिस्थितियों का शिकार समझा। कांग्रेस ने उसे आर्थिक शोषण का शिकार समझा, जो मनरेगा रोजगार, राशन के अनाज, सब्सिडी वाली बिजली व रसोई गैस का हकदार है। मायावती और अन्य दलित पार्टियों ने उसे उच्च वर्ग के दमन का शिकार समझा। समाजवादी पार्टी ने उसे हिंदू भेदभाव का शिकार मुस्लिम युवा समझा। लेकिन भविष्य की हसरतें रखने वाला यह युवा खुद को शिकार नहीं समझता। वह खुद को शिकवा-शिकायत की इस राजनीति से नहीं जोड़ता। अन्य दल यह भूल गए कि 25 साल तक ऊंची विकास दर के बाद भारत बदल चुका है। नए मध्यवर्ग का उदय हुआ है, जो आबादी का चौथाई हिस्सा है। इसके अलावा एक (मोदी के शब्दों का इस्तेमाल करें तो) नव-मध्यवर्ग भी तैयार हो गया है। इसकी तमन्ना मध्यवर्ग में आने की है। यह भी आबादी का लगभग चौथाई हिस्सा है। इस तरह आधी आबादी महत्वाकांक्षी लोगों की है।
मोदी ने यह भरोसा जगाया कि सारे भारतीय अपने सपनों को लेकर एक जैसे हैं। उन्होंने हमारी जाति, धर्म और पृष्ठभूमि भुला दी। हमने भी महसूस किया कि हम सब अपनी आकांक्षाओं में समान हैं। और भारत यदि ये आकांक्षाएं पूरी करने में सफल रहा तो यह अपनी पूरी क्षमताओं का दोहन कर एक महान राष्ट्र में तब्दील हो जाएगा। उन्होंने हमारे भीतर यह अहसास भी जगाया कि शिकवा-शिकायत की राजनीति ने हमारे मन में विभाजन की लकीरें खींच दी हैं और यही वजह है कि लंबे समय से भारत एक ऐसा देश बना हुआ है, जो वे उपलब्धियां हासिल नहीं कर पाया, जिसका वह हकदार है।
मैं उन मध्यमार्गी उदार व धर्मनिरपेक्ष भारतीयों में से था, जिन्होंने मोदी को वोट दिया। हिंदू राष्ट्रवाद मुझे आकर्षित नहीं करता और इसलिए इसके पहले मैंने कभी भाजपा को वोट नहीं दिया। इस बार मैंने मोदी को चुना, क्योंकि उनमें आर्थिक वृद्धि को बहाल करने और युवा आबादी को फायदा पहुंचाने के भारत के सर्वश्रेष्ठ अवसर मौजूद हैं। किंतु मैं यह स्वीकार करता हूं कि मैं महीनों तक एक तानाशाही प्रवृत्ति के सांप्रदायिक व्यक्ति को चुनने के जोखिम को लेकर पसोपेश में रहा। अंतत: मैंने महसूस किया कि भारत जैसे गरीब देश में युवा आबादी की उम्मीदें पूरी करने और लाखों लोगों को गरीबी से बाहर लाने के लिए यह जोखिम उठाया जा सकता है।
मोदी की जीत के बाद से हमारे वामपंथी बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि देखो, देश कैसे दक्षिणपंथी विचारधारा की तरफ चला गया है। हां, आर्थिक स्तर पर यह दाहिनी ओर झुक गया है। मगर इन बुद्धिजीवियों का यह मानना गलत है कि देश ने हिंदू राष्ट्रवाद की ओर जाने का फैसला कर लिया है। मोदी इसलिए विजयी हुए, क्योंकि मेरे जैसे लाखों लोगों ने उन पर भरोसा कर विकास व रोजगार के लिए मतदान किया। उनके लंबे अभियान के दौरान मोदी ने हमें बताया कि वे आधारभूत ढांचे में निवेश करके और प्रशिक्षण के द्वारा युवाओं का हुनर बढ़ाकर विकास लाएंगे। इसके लिए वे निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए लालफीताशाही पर लगाम लगाएंगे, अनुत्पादक सब्सिडी हटाएंगे और शासन को भ्रष्टाचार से मुक्त करेंगे। मोदी का चुनाव हिंदू राष्ट्रवादियों ने नहीं किया है बल्कि उन युवाओं ने किया है, जो कांग्रेस की भ्रष्ट व अव्यवस्थित नीतियों से ऊब चुके थे। कांग्रेस ने समानता आधारित समाज के निर्माण के उत्साह में आर्थिक विकास की अनदेखी कर दी। दो वर्ष पहले भारत की जो विकास दर 9 फीसदी थी, वह आज 4.5 फीसदी हो गई है। हर एक फीसदी की कमी से हमने 15 लाख नौकरियां गंवाई हैं।
मार्च में मैंने इस कॉलम में बताया था कि भारत के अवसर इस तथ्य में छिपे हैं कि इसकी एक बड़ी आबादी कामकाजी उम्र की है। आबादी का यह फायदा हर वर्ष प्रतिव्यक्ति जीडीपी वृद्धि में दो फीसदी अंक का योगदान दे सकता है। प्रतिवर्ष करीब एक करोड़ लोग रोजगार के क्षेत्र मेें प्रवेश करते हैं जबकि जीडीपी में एक फीसदी की वृद्धि से मोटेतौर पर 15 लाख प्रत्यक्ष रोजगार पैदा होते हैं। आज की 4.5 फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर को 8 फीसदी तक बहाल करने पर पर्याप्त गरिमामय नौकरियां पैदा होंगी।
मैं जब कहता हूं कि मैंने मोदी को वोट दिया है तो मित्र अवाक रह जाते हैं। मैं आर्थिक वृद्धि के लिए पवित्र धर्मनिरपेक्षता को कैसे छोड़ सकता हूं? मैं कोई धर्मनिरपेक्षता नहीं छोडऩा चाहता, लेकिन यदि आर्थिक वृद्धि लडख़ड़ाती रही तो धर्मनिरपेक्षता खतरे में पड़ जाएगी। इतिहास बताता है कि दक्षिणपंथी अतिवाद बेरोजगारी और असंतोष के वातावरण में ही फलता-फूलता है। मोदी को वोट देने में दूसरा जोखिम यह है कि वे तानाशाही प्रवृत्ति के हैं। मुझे इस बात से राहत मिलती है कि देश में ऐसी कई संस्थाएं हैं जो तानाशाही के प्रयासों का विरोध करेंगी जैसे आक्रामक मीडिया व निर्भीक न्यायपालिका और विरोध करने वाले निर्भीक लोग। इसलिए मैंने निष्कर्ष निकाला कि मोदी को वोट न देने में ज्यादा जोखिम है।
मोदी की पहली प्राथमिकता अपनी ताकत पर आगे बढऩे की होनी चाहिए। वे कार्यक्रमों व योजनाओं को अमल में लाने में सिद्धहस्त हैं। उन्हें अपनी इस क्षमता का उपयोग केंद्रीय नौकरशाही को दिशा देने में करना चाहिए, जो दशकभर के कांग्रेस शासन के कारण पंगु हो गई है। यदि लक्ष्य स्पष्ट हो तो भारतीय नौकरशाही उच्चस्तरीय प्रदर्शन करनेे की काबिलियत रखती है। यह हमने पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के कार्यकाल में 1991 से 1993 के बीच देखा है। मोदी को जल्दी ही मुस्लिमों को भरोसा दिलाना चाहिए कि वे सारे भारतीयों के नेता हैं और उनकी सरकार अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने के लिए प्रतिबद्ध है। भारत को दीर्घावधि का खतरा न तो चीन से है न पाकिस्तान से है। यह खतरा तो भीतर से है- अलगाव महसूस कर रहे मुस्लिमों से। भारतीय मुस्लिम दुनिया में सबसे कम अतिवादी, सबसे कम कट्टरपंथी मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं। यह पिछले 65 वर्षों में भारत की महान उपलब्धि है। यदि मोदी अपने आर्थिक लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं, तो उन्हें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जो इस तथ्य को बदल दे।