नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने दो माह हो गए और यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया है कि यह एक 'मोदी सरकार' है। उन्होंने सरकारी दफ्तरों के शीर्ष पर बैठे सभी प्रमुख सचिवों से सीधा संपर्क स्थापित कर लिया है। वे उन्हें फैसले लेने और यदि कुछ गड़बड़ हो जाता है तो उनसे संपर्क करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। सचिवों और प्रधानमंत्री के बीच मंत्रियों की दुविधापूर्ण स्थिति है, कैबिनेट के साधारण दर्जे को देखते हुए यह शायद अच्छा ही है। मंत्री तो खुश हो नहीं सकते। उन्हें रिश्तेदारों को नौकरियां देने की मनाही है। वे फैसलों में व्यक्तिगत हित नहीं देख सकते।
महीनों की बातों के बाद अब हम कुछ होता देखना चाहते हैं। यह मौका पिछले हफ्ते आया जब इस सरकार ने अपना पहला बजट पेश किया। मोदी ने वित्तीय अनुशासन कायम करने के लिए जरूरी 'कड़े' फैसलों की बात कही थी। ऐसे फैसले, जिनके कारण लोगों की नाराजी का जोखिम था। हालांकि, बजट में ऐसा कुछ नहीं हुआ। कड़े फैसले लेने का मौका सरकार ने गंवा दिया।
बजट में ऐसे भारत के लिए नरेंद्र मोदी का रणनीतिक विज़न कहीं नजर नहीं आया, जिसे तेजी से आगे बढ़ने और सभी के लिए अवसर निर्मित करने की जरूरत है। यह बजट तो ऐसा लगा जैसे यूपीए सरकार के पुराने नौकरशाहों ने तैयार किया हो, कि किसी विज़नरी नई सरकार ने। बजट में निरंतरता दिखाई दी जबकि जरूरत बदलाव की थी। वित्तमंत्री अरुण जेटली को अपने पहले बजट का इस्तेमाल पांच साल का विज़न रखने में करना चाहिए था। उन्हें बताना चाहिए था कि क्यों यूपीए शासन में आर्थिक वृद्धि आधी रह गई और इसे पटरी पर लाने के लिए कौन से कड़े फैसले करने होंगे। उन्होंने यह नहीं किया और एक बड़ा मौका खो दिया।
भाजपा ने इस साल फरवरी में पेश चिदंबरम के अंतरिम बजट के आंकड़ों को हकीकत से दूर और हासिल करने में असंभव बताया था। मगर अब जेटली ने उन्हीं आंकड़ों को स्वीकार कर लिया है। नई सरकार को बजट संबंधी खातों पर स्पष्ट बात करने का मौका मिला। फिर चाहे इसका मतलब ऊंचे वित्तीय घाटे को स्वीकार करना ही क्यों हो। जेटली के कुछ आकड़े उतने ही खोखले नजर आते हैं, जितने चिदंबरम के थे। करों से होने वाली अामदनी 17.4 फीसदी से बढ़ने की बात कही गई है, लेकिन इस पर भरोसा नहीं होता। जीडीपी वृद्धि में मामूली इजाफे से यह आंकड़ा 13 से 14 फीसदी (9 फीसदी तो मुद्रास्फीति प्लस 5 फीसदी वास्तविक जीडीपी वृद्धि) से ज्यादा जाने की संभावना नहीं है। फिर सालाना वित्तीय घाटे का 45 फीसदी तो इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में ही हो गया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह असाधारण रूप से बुरा वक्त है। मुद्रास्फीति (महंगाई) तो बहुत बढ़ गई है और आर्थिक वृद्धि बहुत कम है। ऊंचा वित्तीय घाटा महंगाई की स्थिति को और भी खराब बना रहा है। इसके कारण निजी क्षेत्र निवेश करने से कतरा रहा है। चालू खाते के घाटे को तो वृद्धि ठप होने और सोने के आयात पर नियंत्रण रखकर काबू में रखा गया है। मानसून बहुत खराब रहने का अनुमान व्यक्त किया गया है। इससे कीमतें और बढ़ने की आशंका है। दुनिया की स्थिति देखते हुए कह सकते हैं कि कच्चे तेल की कीमतें भी अासमान छू सकती हैं। शेयर बाजार जरूरत से ज्यादा ऊंचा जा रहा है और यदि कोई बुरी खबर आई तो पूंजी बाहर जाने लगेगी और इसे धराशायी होते देर नहीं लगेगी। इस बजट में ऐसी सब आपात स्थितियों का अनुमान लगाकर इन धक्कों को बर्दाश्त करने की व्यवस्था की जानी चाहिए थी। इसकी बजाय बजट से वित्तीय संतोष झलकता दिखाई देता है।
हो सकता है मैं कुछ कठोर बातें कर रहा हूं और अधैर्य जता रहा हूं। क्योंकि यह सच है कि सरकार को अस्तित्व में आए सिर्फ दो ही महीने हुए हैं और उठाए जाने वाले कई कदमों में से ये शुरुआती कदम ही हैं। िवत्तमंत्री जेटली ने यह जरूर माना कि यह बजट दिशा देने वाला है। इसमें कोई विस्तृत ब्ल्यू प्रिंट नहीं है। नई सरकार को विज़न को साकार करने के लिए वक्त देना होगा।
बजट में कई अच्छी चीजें हैं। आधारभूत ढांचे और रीयल एस्टेट को वाकई प्रोत्साहन गति दी गई है। इन दोनों क्षेत्रों का संबंध निर्माण श्रम से है और इससे बड़ी संख्या में रोजगार पैदा होगा। महंगाई रोकने के कदम भी इसमें हैं। जेटली की जगह यदि मैं होता तो बताता कि कैसे यह बजट रोजगार पैदा करेा और महंगाई को काबू में लाएगा। ये दो मुद्दे ही तो लोगों के दिमाग पर छाए हुए हैं। यह मौका भी गंवा दिया गया।
मोदी और जेटली को पूर्ववर्ती सरकार की गलतियों से सीखना चाहिए और जोर देकर आर्थिक सुधारों का माहौल तैयार करना चाहिए। उन्हें लगातार राष्ट्र को इस बारे में शिक्षित करना चाहिए कि सुधारों और नौकरियों, आगे बढ़ने के मौकों और समृद्धि के बीच क्या संबंध है। उन्हें लोगों को बताना चाहिए कि स्पर्द्धा आधारित बाजार और नियमों पर आधारित पूंजीवाद ही समृद्धि का वाहक हो सकता है। उन्हें नियम कायदों पर चलने वाले पूंजीवाद और दोस्ती-यारी पर चलने वाले पंूजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) में फर्क बताना चाहिए। उन्हें बताना चाहिए कि सरकारी खैरात बांटने से नहीं, आर्थिक सुधारों से अच्छे दिन आएंगे।
अब अगले कदम क्या होने चाहिए? यदि यह सरकार वित्तीय घाटे को निशाना बनाना चाहती है तो इसे जल्दी से सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और बैंकों का विनिवेश शुरू कर देना चाहिए। अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए यह विनिवेश के जरिये 60,000 करोड़ रुपए की राशि खड़ी कर सकती है। पिछली सरकार ने पिछले तीन साल में जो हासिल किया है यह उससे तीन गुना अधिक है। इसे अनावश्यक सब्सिडी की भी कटौती शुरू कर देनी चाहिए। जेटली ने एक व्यय अायोग गठित करने की घोषणा की है। इस आयोग को जल्दी रिपोर्ट देनी चाहिए ताकि जेटली सब्सिडी में कटौती से आधे साल में संभव बचत पर गौर कर सकें। मोदी की कैबिनेट को जल्दी से भू-अधिग्रहण के नए नियम बनाने चािहए, जिनके अभाव में बहुत से मैन्यूफैक्चरिंग प्रोजेक्ट अटके पड़े हैं। इसी प्रकार श्रम कानूनों के कारण औपचारिक नौकरियां निर्मित नहीं हो पा रहीं। इस सरकार को केंद्र में श्रम कानूनों में सुधार की शुरुआत करनी चाहिए (जो राजस्थान सरकार राज्य स्तर पर कर रही है)।
जेटली के निराशाजनक प्रदर्शन से भविष्य के वित्तमंत्रियों के लिए एक सबक है। पूर्ववर्ती वित्तमंत्री लंबे भाषण देकर िवस्तृत ब्योरे देकर मतदाताओं के हर वर्ग को खुश करने का प्रयास करते थे। जेटली ने िजतने भी मतदाता वर्ग की कल्पना की जा सकती है, उन सबके लिए छोटी-छोटी परियोजनाओं की घोषणा की। वित्तमंत्री को हर 100 करोड़ के उस प्रोजेक्ट के बारे में बताने पर दो घंटे बर्बाद करने की जरूरत नहीं है, जो वह आगे अमल में लाने वाला है। उसे तो आधे घंटे में सरकार का विज़न स्पष्ट कर यह बताना चाहिए कि किस प्रकार बजट इस विज़न को पूरा करेगा। सरकार के बजट को लोगों तक पहुंचाने का यह है राजनीतिज्ञ जैसा तरीका।