जिस दिन आम आदमी पार्टी दिल्ली में चौंकाने वाली जीत दर्ज कर रही थी, उसी दिन मैं पाकिस्तानी लेखक शाहिद नदीम के लाजवाब नाटक दारा का आनंद उठा रहा था। इसका मंचन हाल ही में लंदन के नेशनल थियेटर में किया गया था। तमाम स्कूली छात्र औरंगजेब और दारा शिकोह के बीच चल रही खूनी जंग के बारे में जानते हैं, लेकिन यह नाटक केवल उत्ताराधिकार की लड़ाई तक ही सीमित नहीं है। इसमें दिखाया गया है कि भारत क्या था, क्या बन गया और क्या होना चाहिए था। यह आज की जनता को संबोधित था और इसमें नाखुश पाकिस्तान और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गंभीर नसीहत देता है। इसमें यह नसीहत भी है कि पिछले दिनों दिल्ली चुनाव में भाजपा को जो झटका लगा है भविष्य में वैसे झटकों से कैसे बचा जा सकता है। मानव इतिहास में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिले हैं। सबसे हृदयविदारक घटनाओं में से एक है जब मुगल बादशाह शाहजहां के बड़े बेटे और गद्दी के उत्ताराधिकारी दारा शिकोह का सिर कलम कर दिया गया था। तबसे भारतीयों को एक सवाल कचोटता रहता है कि अगर कट्टरपंथी और असहिष्णु औरंगजेब के बजाय दारा शिकोह भारत की गद्दी पर बैठता तो इतिहास की क्या दशा-दिशा होती। भारत के आखिरी वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन की कुख्यात गैरजिम्मेदारी के कारण 1947 में विभाजन का जो दंश झेलना पड़ा था, उसके बीज दारा शिकोह के जीवनकाल में ही रौप दिए गए थे।
दारा का संबंध अतीत से ही नहीं है। तमाम ऐतिहासिक नाटकों की यह भी आज के जमाने में प्रासंगिक है। जहां लंदनवासी सीरिया में आइएस के भयावह इस्लामिक उग्रवाद को लेकर भौचक थे, मैं मोहन भागवत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने की परियोजना को लेकर चिंतित था। जहां दारा की तरह मोदी भारत पर तमाम भारतीयों के लिए शासन करना चाहते हैं, वहीं मोहन भागवत भारत को बदनसीब पाकिस्तान में बदल देना चाहते हैं। संपूर्ण संघ परिवार को यह नाटक देखना चाहिए। कोई भी दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सुनामी को नहीं समझ पा रहा है, और केजरीवाल तो सबसे कम। निश्चित तौर पर यह भारत के ढुलमुल लोकतंत्र की जीत है। किंतु असल मुद्दा यह है कि भारत के राजनेता इसकी किस तरह व्याख्या करेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गलत सबक नहीं सीखने चाहिए। यह उनके विकास और सुधार एजेंडे के खिलाफ जनादेश नहीं है। उन्हें लोकलुभावन नीतियों से बचना होगा। असल में यह जनादेश संघ परिवार की विभाजनकारी नीतियों का खंडन है। आप की भारी-भरकम जीत बताती है कि दिल्ली के बहुत से मतदाता, जिन्होंने मई 2014 में मोदी के पक्ष में वोट दिया था, अब भाजपा से छिटक गए हैं। इनमें खासतौर पर अल्पसंख्यक मतदाता शामिल हैं। इसलिए मोदी को दारा पर ध्यान देने की जरूरत है।
दारा शिकोह एक अद्भुत और शानदार व्यक्तित्व थे। 1526 में मुगल शासन की शुरुआत से 1857 में इसके अंत तक जितने भी मुगल राजकुमार हुए, उनमें वह सबसे अलग और अनोखे थे। उनके अंदर दो महान पूर्वजों हुमायूं और अकबर के गुण थे। उनके जीवन का महान ध्येय था हिंदुओं और मुसलमानों के बीच शांति और भाईचारा कायम करना। वह एक सूफी बुद्धिजीवी बने, जिसका मानना था कि हर किसी के लिए भगवान की तलाश समान है। उन्होंने अपना जीवन वेदांतिक और इस्लामिक अध्यात्म में समन्वय बैठाने में समर्पित कर दिया। वह मानते थे कि कुरान में अदृश्य किताब-किताब अल-मकनन, वास्तव में उपनिषद थे। उन्होंने संस्कृत सीखी और उपनिषद, भगवतगीता और योग वशिष्ठ का फारसी में अनुवाद किया। इसमें उन्होंने बनारस के पंडितों की मदद ली। अकबर और कबीर के पदचिह्नों पर चलते हुए उन्होंने सिख गुरु हर राय का अध्ययन किया। उन्हें अमृतसर में गोल्डन टेंपल की आधारशिला स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया गया। संभवत: वह भारतीय सांस्कृतिक समन्वय का सबसे अच्छा उदाहरण हैं। वर्ह ंहदू और इस्लाम की रहस्य परंपराओं को एक दूसरे से जोड़ते रहे।
1657 में शाहजहां बीमार पड़ गए और औरंगजेब गद्दी के उत्ताराधिकारी अपने बड़े भाई दारा शिकोह के खिलाफ खड़ा हो गया। वह एक कट्टर मुसलमान था और दारा के विचारों को गलत मानता था। साथ ही वह अवसरवादी भी था। उसने सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए दारा को रास्ते से हटाने का फैसला किया। उसने इस्लामिक मौलवियों और उलेमाओं की उच्चस्तरीय परिषद की बैठक बुलाई। इस परिषद में उसने अपनी मित्रमंडली और समर्थकों को भरा हुआ था। इस परिषद ने दारा शिकोह को शांति भंग करने और इस्लाम के प्रति गद्दारी का दोषी पाया और 30 अगस्त, 1659 की रात को मौत के घाट उतार दिया। अगर दारा इस सत्ता संघर्ष में जीत जाते तो भारत का भविष्य कुछ और ही होता। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मुगल साम्राज्य इसलिए पतन के गर्त में गिरने लगा क्योंकि दारा शिकोह की मौत के समय औरंगजेब को महान सूफी संत और फारसी के प्रसिद्ध कवि सरमद ने श्राप दिया था।
सिंहासन पर बैठते ही औरंगजेब ने गैर-मुस्लिम भारत पर कड़ा शरिया शासन थोप दिया। विडंबना यह है कि अपने भाइयों, भतीजों और खुद के बच्चों के हत्यारे औरंगजेब को पाकिस्तान में मुसलमानों का नायक माना जाता है और दारा शिकोह को फुटनोट में ही जगह मिल पाई है। सौभाग्य से पाकिस्तान और भारत दोनों ही देशों में उदारवादी लेखकों ने दारा की अद्भुत विरासत को जिंदा रखा। कुछ वषरें के अंतराल पर उनके जीवन पर कोई न कोई किताब सामने आ जाती है। अगले सप्ताह 28 फरवरी को भारत सरकार बजट लाने जा रही है। हमें देखना होगा कि दिल्ली चुनावों में आप की जीत से मोदी ने क्या सबक लिए हैं। अगर वह इस जीत का कारण मुफ्त उपहार बांटना मानते हैं और सुधारों व ढांचागत विकास के कठिन रास्ते से हट जाते हैं तो यह शर्मनाक होगा। यही एकमात्र रास्ता है जिससे भारत में रोजगार पैदा होंगे और आर्थिक भविष्य सुनहरा होगा। अगर वह दिल्ली के चुनावों की पुनरावृत्तिनहीं चाहते तो उन्हर्ें ंहदुओं के दक्षिणपंथी उभार पर अंकुश लगाना होगा। उन्हें औरंगजेब के कट्टरपंथ, असहिष्णु आचरण के बजाय दारा के विचारों से प्रेरणा लेनी होगी।
दिल्ली में गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में आज भी दारा शिकोह द्वारा स्थापित किया गया पुस्तकालय मौजूद है। आप समय निकाल कर इसमें जाएं। अब यह भारतीय पुरातत्विक सर्वे द्वारा संचालित एक संग्रहालय के रूप में है। आप अपने दिमाग को दारा के विचारों की लौ प्रेरणा लेने दें कि धर्म सत्य, सौंदर्य, प्रेम और न्याय की शांतिपूर्ण तलाश है। जो सत्ता की हवस के लिए धर्म का इस्तेमाल करते हैं वे इतिहास के खलनायक हैं।