संदर्भ... तीन तलाक से आगे जाकर भारतीय समाज में नारी के खि लाफ घरेलू हिंसा खत्म होना ज्या दा जरूरी
तीन तलाक फिर खबरों में है और ज्यादातर गलत कारणों से। यह इस्ला मी कानून में सिर्फ मुंह से कहकर विवाह खत्म करने का मुस्लिम पति का अधिकार है। आज तो वह ऐसा एसएमएस भेजकर अथवा वॉट्सएप के जरिये कर सकता है। मोदी ने चाहे बिल्कुल अलग ही बात कही हो लेकिन, इस विवादास्पद प्रक्रिया को खत्म करने के लिए भाजपा के उत्साह का संबंध मुस्लिम महिला के प्रति करुणा की बजाय समान नागरिक संहिता और हिंदू राष्ट्र के प्रति इसकी प्रतिबद्धता है। शाह बानो मामले के बाद तो मुस्लिम महिलाओं को संरक्षण देने का कांग्रेस का रिकॉर्ड तो और भी खराब है।
सुप्रीम कोर्ट की संवैधानि क बेंच ने तलाक की इस प्रक्रिया को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई प्रारंभ कर दी है। नतीजा क्या होगा कहना कठिन है। समाधान न तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रस्ताव के मुताबिक सामाजिक बहिष्कार में है और न सिर्फ कानून में बदलाव करने से यह होगा। असली समाधान तो मानसिकता में पूरी तरह बदलाव से आएगा। पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुस्लिम समुदाय के अग्रणी लोगों से आग्रह किया कि वे समुदाय के भीतर से सुधार की शुरुआत करें। वे उनसे मिलने आए प्रमुख मुस्लिम संगठन जमायत उलेमा-ए-हिंद के नेताओं से चर्चा कर रहे थे। बेशक, यह बहुत समझदारीभरा सुझाव है। तीन तलाक जैसे सामाजिक मुद्दे न तो राजनीतिक अथवा धार्मिक जोर-शोर की गई बातें से और न मीडिया ट्रायल से सुलझाए जा सकते हैं। संबंधित लोगों के दि ल और दि माग को बदलना होगा। न यह लखनऊ में पिछले माह ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा सुझाए ऐसे लोगों के बहिष्कार जैसे आदर्शवादी कदम से संभव है। ऐसे बहिष्कार कितने असरदार होंगे और इसका अधिकार किसके पास होगा? उस बेचारी महिला को फायदा कैसे मिलेगा, जिसकी ज़िंदगी बर्बाद हो गई है?
तीन तलाक उन पुरुषों के लिए समस्या नहीं है, जो वाकई अपनी शादी हमेशा के लिए खत्म करना चाहते हैं। समस्या उन सैकड़ों अन्य पुरुषों की है, जो बि ना सोचे समझे इसे बोल देते हैं- गुस्से में या अचानक उकसाने पर अथवा जरूरत से ज्या दा शराब पी लेने पर और फि र बाद में पछताते हैं। धार्मि क नेता जोर देते हैं कि तीन तलाक का उच्चार ही किसी शादी को खत्म करने के लिए काफी है, फिर उस पुरुष का इरादा कुछ भी क्यों न हो और बाद में पछता ही क्यों न रहा हो। वे उस युगल को गरिमाहीन हलाला की प्रथा का अनुसरण करने को कहते हैं। जिसे बदलने की जरूरत है वह एकतरफा तलाक का कानून है, वह भी पुरुष की मर्जी से।
मुझे लगता है कि तीन तलाक की घटनाएं बहुत अधिक नहीं है- आमतौर पर मुस्लिमों में तलाक कम ही होते हैं, शायद उससे अधिक नहीं, जित ने हिंदुओं में होते हैं। मानव गरिमा का असली मुद्दा तो घर में उसके साथ हिंसा की वैश्विक समस्या है। एक सर्वे के मुताबिक भारत में सारे समुदायों को मि लाकर सिर्फ दो-तिहाई महिलाएं ही घरेलू हिंसा की रिपोर्ट कराती हैं। यदि हमें महिलाओं की गरिमा की चिंता है तो हमें इस सामाजिक बुराई से सबसे पहले निपटना चाहिए। यहां भी जवाब इस बात में नहीं है कि शराब पीने पर बिना सोचे-समझे प्रतिबंध लगा दिया जाए बल्कि समाधान इस बात में है कि कच्ची उम्र से ही लड़के-लड़कियों को महिलाओं की गरिमा का सम्मा न करने की शिक्षा देनी चाहिए। यह न सिर्फ मुस्लिमों के लिए बल्कि अन्य समुदायों के लिए सबक है, जिनके नि जी कानून चाहे अधिक उदार होंगे लेकिन, व्यव हार में बहुत कुछ कि या जाना बाकी है।
अरस्तु की सोच यह थी कि पुरुष प्राकृतिक रूप से श्रेष्ठ हैं और महिलाओं की भूमि का सिर्फ संतानोत्पत्ति और घर में पुरुषों की सेवा करना है। शुरुआती ईसाई चर्च ने इस असमानता को संस्थागत रूप दिया। भारत में मनु ने यही किया। सामाजि क संहिता बनाई गई, जिसके तहत महि लाओं को पितृसत्तात्मक ब्राह्मण समाज में दोयम दर्जा स्वी कार करने के लिए ढाला। नारीवादियों की दलील हैं कि सीता, सावित्री और अन्य तरह की कहानियां इसीलिए गढ़ी गई ताकि महिलाएं खुद ही दोयम भूमि का स्वीकार कर लें।
बड़ी अजीब बात है कि 12वीं सदी का रूमानी प्रेम महिलाओं के लिए कुछ हद तक समानता और स्वतंत्रता लाया और इसने गहराई से जमे सामाजिक बंधनों को तोड़ा। रूमानी प्रेम व्यक्तिनिष्ट है और इसने प्रेयसी को श्रेष्ठत र मानव के रूप में प्रतिष्ठित किया। इस तरह महिला वस्तु की बजाय व्यक्ति बनी। यह सोचना गलतफहमी है कि यह प्रेम पशचिम में जन्मा । यह दुनिया के तीन भागों में एक साथ पैदा हुआ और तीन असाधारण साहित्यिक कृत्रियों में व्यक्त हुआ। यूरोप में यह बेडियर के 'ट्रिस्ट न एंड इसोल्ड' में, इस्लामी फारस में यह निज़ा मी के 'लैला-मजनूं' और भारत में जयदेव के 'गीत गोविंद' में 'राधा-कृष्ण ' के दिव्य प्रेम में यह व्यक्त हुआ। रूमानी प्रेम के पहले केवल दैहिक प्रेम था, जिसमें नारी केवल वस्तु थी, व्यक्ति नहीं।
पश्चिम में रूमानी आंदोलन 18वीं सदी के पुनर्जा गरण काल में जन्मा । इसकी एक प्रेरणा इमेन्युअल कांट का नैतिक नियम था- मानव को साधन नहीं, उद्देश्य की तरह अपनाओ और इससे महिलाओं को गरिमा प्राप्त हुई। आधुनिक विवाह इसी समय जन्मा । 19वीं सदी में महिलाओं ने भी मताधिकार के लिए लड़कर पुरुष प्रभुत्व को चुनौती दी। बीसवीं सदी के नारी आंदोलन ने पश्चिमी समाज में बहुत प्रभावी बदलाव लाया। खासतौर पर विवाह में जिसमें 'नो फाल्ट' डिवोर्स, गर्भ पात व संपत्ति का अधिकार और कार्यस्थल पर बेहतर वेतनमान शामिल है। भारत में चाहे अब भी 'अरेंज मैरिज' है पर यह इसमें धीरे-धीरे 'लव मैरिज' की बातें अ रही हैं। बॉलीवुड के प्रभाव से शहरी मध्यवर्गीय पुरुष अब उतने हावी होने वाले नहीं है और महिलाएं भी अपना वजूद बना रही हैं। यह चलन आगे बढ़ेगा पर हमें विवाह व परिवार टूटने से बचाने होंगे, जो पश्चिम में हुआ है। हां, तीन तलाक तो जाना ही चाहि ए पर हमें इसके आगे जाना होगा। महिलाओं को गरिमा, समानता और आत्मसम्मा न देने के लिए सभी भारतीयों के दि लो-दिमाग बदलने चाहिए। कानून में बदलाव तो शुरुआत है जैसाकि महात्मा गांधी कहा करते थे। भारतीयों को आधुनिकता के आदर्शों को आत्मसात करना होगा न कि पश्चिम का केवल अनुकरण। गांधीजी का विचार था कि स्वतंत्रता और समानता के विचार हमारे साधारण धर्म के रूप में व्यक्त होने चाहिए।