संदर्भ... फीस कंट्रोल की बजाय सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता बढ़ाएं और शिक्षा में निवेश को बढ़ावा दें
कल्पना कीजिए कि आप एेसे आदर्शवादी युवा हैं, जिसमें भावी पीढ़ी के बच्चों को प्रेरित करने की महत्वाकांक्षा है। इसलिए आप स्कूल खोलते हैं। आप अपने जैसे ही प्रेरक शिक्षक जुटाते हैं। स्कूल तत्काल सफल हो जाता है और उसे छात्रों, पालकों और समाज का सम्मान प्राप्त होता है। फिर 2010 में एक नया कानून (राइट टू एजुकेशन एक्ट) आता है। इसमें सरकारी और निजी स्कूलों के शिक्षकों में वेतन की समानता की बात है। आप अपने शिक्षकों का वेतन दोगुना कर 25 हजार प्रति माह करने पर मजबूर होते हैं। यहां तक कि श्रेष्ठतम निजी स्कूल जैसे दून स्कूल और मेयो को भी वेतन बढ़ाने पड़ते हैं। कानून के मुताबिक 25 फीसदी छात्र गरीब परिवारों के होने चाहिए। अपेक्षा थी कि सरकार गरीब छात्रों की फीस देगी पर यह सिर्फ आंशिक भुगतान करती है या कुछ भी नहीं देती। इन दोनों बातों के कारण बढ़ी लागत के कारण सारे 75 फीसदी छात्रों की फीस अत्यधिक बढ़ाई जाती है। जल्दी ही वेतन आयोग फिर वेतन बढ़ाता है और शिक्षकों का वेतन अब 35 हजार रुपए हो जाता है। फिर आपको 75 फीसदी छात्रों की फीस बढ़ानी पड़ती है।
पालक अब लगातार बढ़ती फीस के कारण नाराज हैं। इसलिए निजी स्कूलों में 'फीस कंट्रोल' राजनीति क मुद्दा बन गया है। सरकार छात्रों की फीस पर नियंत्रण के लिए कानून लाई है। मसलन, गुजरात में प्राथमिक स्कूल के लिए 1250 रुपए प्रति माह और हाई स्कूल के लिए 2300 रुपए प्रति माह अधिकतम फीस तय कर दी गई है। तमिलनाडु, राजस्थान, पंजाब ने भी सीमा तय कर दी है और उत्तर प्रदेश व दिल्ली इस पर विचार कर रहे हैं। अचानक आपकी स्कूल खतरे में पड़ गई है, क्योंकि 'फीस कंट्रोल' के तहत फीस से आपकी लागत पूरी नहीं होती। आपके पास तीन विकल्प है। आप या तो स्कूल इंस्पेक्टर को रिश्वत दें, जो आपको बताएगा कि आपके खातों में कैसे हेराफेरी की जाए या आप अपने स्कूल के कार्यक्रमों की गुणवत्ता में अत्यधिक कटौती कर दें अथवा स्कूल ही बंद कर दें। आप धर्मसंकट में हैं। चूंकि आप ईमानदार व्यक्ति हैं तो आप न तो स्कूल इंस्पेक्टर को रिश्वत देंगे और न खातों में हेराफेरी करेंगे। चूंकि आपने अच्छी शिक्षा देने के लिए ही स्कूल खोला था तो आप गुणवत्ता के साथ समझौता नहीं करेंगे। आपके पास स्कूल बंद करने के अलावा विकल्प नहीं है।
अब पालकोें को सरकारी स्कूल या घटिया निजी स्कूल के बीच चुनाव करना है। सरकारी स्कूल में पढ़ाई, किताबें, यूनिफॉर्म, स्कूल बैग, भोजन आदि मुफ्त मिलता है लेकिन, सीखने को कुछ नहीं मिलता। शिक्षक आमतौर पर गायब रहते हैं और जो रहते भी हैं तो पढ़ाते नहीं। जो पढ़ाते भी हैं तो वे प्रेरित होकर नहीं पढ़ाते। यही वजह है कि गरीब लोग भी सरकारी स्कूलों को छोड़ते जा रहे हैं। 2011 से 2015 के बीच सरकारी स्कूलों में नामांकन 1.1 करोड़ से नीचे गिर गया और निजी स्कूल में 1.6 करोड़ से बढ़ गया। इसीलिए ज्यादातर पालक भारी दि ल के साथ कम गुणवत्ता के नि जी स्कूल में जाते हैं। फीस को नि यंत्रि त करने का जुनून और आरटीई कानून मि लकर या तो अच्छे, ईमानदार स्कूलों को बंद कर रहे हैं या लोगों को बेईमान बनने पर मजबूर कर रहे हैं। वि डंबना तो यह है कि आपने उत्सा ह से आरटीई कानून का समर्थन किया था, क्योंकि एक तो आप मानते हैं कि शिक्षक समाज के अच्छे वेतन पाने वाले सदस्य होने चाह ए और दूसरा यह कि गरीबों को 25 फीसदी आरक्षण देने से उन्हें भी अच्छी शिक्षा का मौका मिलेगा। लेकिन, स्कूलों की लागत और छात्रों की फीस बढ़ी है।
फीस की सीमा तय करना मूल्य नियंत्रण जैसी बात है, जो नेहरू-इंदिरा गांधी के मातहत आम बात होती थी। इसने बहुत बड़ा अभाव और काली अर्थव्यवस्था निर्मित कर दी थी। यह नुकसान पहुंचाने वाली बात अब राजनीति क मुद्दा बन गई है। केवल 18 फीसदी निजी स्कूल 1 हजार रुपए महीने से अधिक फीस लेते हैं और 3.6 फीसदी 2,500 रुपए प्रति माह से अधिक लेते हैं। ऐसे में वे वोट कहां है, जिनके कारण नेता फीस कंट्रोल के लिए राजी हुए हैं? मोदी इस बात को समझते हैं और इसलिए उन्होंने फीस की सीमा तय करने के प्रति निजी स्तर पर आपत्ति जताई है। उन्हें अहसास है कि निजी स्कूलों में घोर स्पर्धा है खासतौर पर शहरों में और इसी से निजी स्कूलों की फीस का राष्ट्रीय औसत आज केवल 417 रुपए प्रति माह है। फिर राज्य सरकारें तो अपने स्कूलों में प्रति छात्र दो से तीन गुना खर्च करती है।
ऐसे में इस समस्या का हल क्या है? हल आंध्र प्रदेश के सेल्फ फाइनेंस्ड इंडिपेडेंट स्कूल्स एक्ट 2017 में है, जो स्पर्धा में तो भरोसा करता है लेकिन, फीस कंट्रोल में नहीं। यह निजी स्कूल खोलने को प्रोत्साहित करता है, उन्हें प्रवेश व फीस की स्वतंत्रता देता है और बोर्ड की मान्यता संबंधी भ्रष्टाचार को खत्म करता है। आंध्र के मॉडल में हम स्कूल की वेबसाइट पर फीस, स्टाफ की शैक्षिक योग्यता, बुनियादी ढांचे का विवरण, खूबियों व खामियों की व्यापक जानकारी देने की बात और जोड़ सकते हैं। इसमें वे सारी बातें हों, जो हर पालक स्कूल का चयन करने के पहले जानना चाहता है। यदि स्कूल महत्वपूर्ण तथ्य सामने नहीं रखता या गलत जानकारी देते हैं तो उन पर कठोर जुर्मा ना लगाना चाहिए। व्यापक खुलेपन और कड़ी स्पर्धा के बाद फीस कंट्रोल अनावश्यक हो जाएगा।
पिछले 70 वर्षों में देश में निजी स्कूलों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे निकले छात्रों ने पेशेवर, सिविल सेवा और बिज़नेस के शीर्ष पदों पर जगह बनाई है। उनके नेतृत्व में भारत विश्वस्तरीय सॉफ्यवेयर पावर बना। बेंगलुरू, चेन्नई, पुणे और हैदराबाद श्रेष्ठता के वैश्विक केंद्र बन गए हैं। सरकार को निजी स्कूलों की फीस से छेड़छाड़ करने की बजाय सरकारी स्कूलों को सुधारने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। नागरिकों के रूप में हमें यह फीस कंट्रोल की घातक मांग बंद कर देनी चाहिए। हमें हमारे सबसे सफल आंत्रप्रोन्योर्स को स्कूल व यूनिवर्सिट ी स्तर पर शिक्षा में निवेश के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। अजीम प्रेमजी, शिव नादर और आशिष धवन उन लोगों के लिए रोल मॉडल बन गए हैं, जो भारत में विश्वस्तरीय स्कूल व कॉलेज स्थापित करना चाहते हैं। लेकिन, यदि फीस कंट्रोल होगा तो वे ऐसा नहीं कर पाएंगे। विश्वस्तरीय संस्थान बनाने से उच्च मध्यवर्ग के भारतीयों के सैलाब को रोकने में मदद मिलेगी, जो अपने बच्चों को विदेश के स्कूलों व विश्वविद्यालयों में पढ़ने भेजने के लिए भारी राशि खर्च कर रहे हैं।