कुछ दिनों पहले रविवार की रात एक टीवी शो में एंकर ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 5 लाख करोड़ डॉलर के जीडीपी के लक्ष्य का तिरस्कारपूर्व बार-बार उल्लेख किया। यह शो हमारे शहरों के दयनीय पर्यावरण पर था और एंकर का आशय आर्थिक प्रगति को बुरा बताने का नहीं था, लेकिन ऐसा ही सुनाई दे रहा था। जब इस ओर एंकर का ध्यान आकर्षित किया गया तो बचाव में उन्होंने कहा कि भारत की आर्थिक वृद्धि तो होनी चाहिए पर पर्यावरण की जिम्मेदारी के साथ। इससे कोई असहमत नहीं हो सकता पर दर्शकों में आर्थिक वृद्धि के फायदों को लेकर अनिश्चतता पैदा हो गई होगी।
कई लोगों ने बजट में पेश नीतियों व आंकड़ों को देखते हुए इस साहसी लक्ष्य पर संदेह व्यक्त किया है। मोदी ने अपने आलोचकों को 'पेशेवर निराशावादी' बताया है। किसी लक्ष्य की आकांक्षा रखने को मैं राष्ट्र के लिए बहुत ही अच्छी बात मानता हूं। जाहिर है कि मोदी 2.0 सरकार नई मानसिकता से चल रही है। यह खैरात बांटने की 'गरीबी हटाओ' मानसिकता से हटकर खुशनुमा बदलाव है। राहुल गांधी ने जब मोदी 1.0 पर सूट-बूट की सरकार होने का तंज कसा था तो वह 'गरीबी हटाओ' से ग्रस्त हो गई थी और इसके कारण हाल के आम चुनाव में इस मामले में नीचे गिरने की होड़ ही मच गई थी। इस लक्ष्य ने आर्थिक वृद्धि की मानसिकता को बहाल किया है, इसीलिए मोदी 2014 में चुने गए थे। चीन में देंग शियाओ पिंग की मिसाल रखते हुए मैं तो मोदी 2.0 के लिए 'न सिर्फ गरीबी हटाओ बल्कि अमीरी लाओ' के नारे का सुझाव दूंगा। 'सूट-बूट' के प्रति सुधारवादी प्रधानमंत्री का सही उत्तर यह होना चाहिए, 'हां, मैं हर भारतीय से चाहता हूं कि वह मध्यवर्गीय सूट बूट की जीवनशैली की आकांक्षा रखे'। जीडीपी का मतलब है ग्रॉस डेवलपमेंट प्रोडक्ट (सकल घरेलू उत्पाद)। यह मोटेतौर पर किसी अर्थव्यवस्था की कुल संपदा दर्शाता है। इसे औद्योगिक युग में अर्थशास्त्रियों ने ईजाद किया था और इसकी अपनी सीमाएं हैं। आज कई लोग पर्यावरण हानि के लिए आर्थिक वृद्धि को दोष देते हैं। वे चाहते हैं कि सरकार धन का पीछा छोड़ लोगों की परवाह करना शुरू करे। लेकिन, यथार्थ तो यही है कि जीडीपी नीति-निर्माताओं के लिए श्रेष्ठतम गाइड है। हाल के वर्षों में आर्थिक वृद्धि ने दुनियाभर में एक अरब से ज्यादा लोगों को घोर गरीबी से उबारा है।
केवल आर्थिक वृद्धि से ही किसी समाज में जॉब पैदा होते हैं। सरकार को टैक्स मिलता है ताकि वह शिक्षा (जो अवसर व समानता लाती है) और हेल्थकेयर (जिससे पोषण सुधरता है, बाल मृत्युदर घटती है और लोग दीर्घायु होते हैं) पर खर्च कर सके। मसलन, भारत में आर्थिक वृद्धि ने ग्रामीण घरों में सब्सिडी वाली रसोई गैस पहुंचाई ताकि वे घर में कंडे व लकड़ी जलाने से होने वाले प्रदूषण से बच सकें। 1990 में प्रदूषण का यह भीषण रूप दुनियाभर में 8 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेदार था। वृद्धि और समृद्धि आने से यह आंकड़ा करीब आधा हो गया है। जब गरीब राष्ट्र विकसित होने लगते हैं तो बाहर का प्रदूषण तेजी से बढ़ता है पर समृद्धि आने के साथ प्रदूषण घटने लगता है और उसके पास इसे काबू में रखने के संसाधन भी होते हैं। अचरज नहीं कि प्रतिव्यक्ति ऊंची जीडीपी वाले राष्ट्र मानव विकास व प्रसन्नता के सूचकांकों पर ऊंचाई पर होते हैं।
वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में आर्थिक वृद्धि को जॉब से अधिक निकटता से जोड़ने का मौका गंवा दिया। मसलन, उन्हें एक मोटा अनुमान रखना था कि अगले पांच वर्षों में बुनियादी ढांचे पर 105 लाख करोड़ रुपए खर्च करने से कितने जॉब निर्मित होंगे। चूंकि आवास अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक श्रम आधारित है तो उन्हें बताना चाहिए था कि '2022 तक सबको आवास' के लक्ष्य के तहत कितने जॉब पैदा होंगे। 5 लाख करोड़ डॉलर का लक्ष्य हासिल करने में सफलता साहसी सुधार लागू करने के साथ मानसिकता में बदलाव पर निर्भर होगी। 1950 के दशक से विरासत में मिला निर्यात को लेकर निराशावाद अब भी मौजूद है और वैश्विक निर्यात में भारत का हिस्सा मामूली 1.7 फीसदी बना हुआ है। निर्यात के बिना कोई देश मध्यवर्गीय नहीं बन सकता। हमें दुर्भाग्यजनक संरक्षणवाद को खत्म करना चाहिए, जिससे देश 2014 से ग्रसित है। हमें अपना नारा बदलकर 'मेक इन इंडिया फॉर द वर्ल्ड' कर लेना चाहिए। केवल निर्यात के माध्यम से ही हमारे महत्वाकांक्षी युवाओं के लिए ऊंची नौकरियां व अच्छेदिन आएंगे। दूसरी बात, वृद्धि और जॉब निजी निवेश के जरिये ही आएंगे। बड़े निवेशकों को भारत का माहौल प्रतिकूल लगता है। बजट ने इसे और बढ़ाया है और शेयर बाजार के धराशायी होने का एक कारण यह भी हो सकता है। तीसरी बात, हालांकि भारत कृषि उपज का प्रमुख निर्यातक बन गया है पर यह अब भी अपने किसानों से गरीब देहातियों की तरह व्यवहार करता है। किसानों को वितरण (एपीएमसी, अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम आदि को खत्म करें), उत्पादन (अनुबंध पर आधारित खेती को प्रोत्साहन दें), कोल्ड चेन्स (मल्टी ब्रैंड रिटेल को अनुमति दें) की आज़ादी और एक स्थिर निर्यात नीति चाहिए। सुधार पर अमल ही काफी नहीं है, मोदी को उन्हें लोगों के गले भी उतारना होगा। शुरुआत अपनी पार्टी, आरएसएस और संबंधित भगवा संगठनों से करें और उसके बाद शेष देश। मार्गरेट थैचर का यह वक्तव्य प्रसिद्ध है कि वे अपना 20 फीसदी वक्त सुधार लागू करने में लगाती हैं और 80 फीसदी वक्त उन्हें स्वीकार्य बनाने में लगाती हैं। नरसिंह राव, वाजपेयी और मनमोहन सिंह जैसे पूर्ववर्ती सुधारक इसमें नाकाम रहें। जबर्दस्त जनादेश प्राप्त मोदी को अपनी कुछ राजनीतिक पूंजी इस पर खर्च करनी चाहिए। अब वक्त आ गया है कि भारत चुपके से सुधार लाना बंद करे। लोकतंत्र में जीतने वाले का हनीमून आमतौर पर 100 दिन चलता है। इकोनॉमी के लक्ष्य के आलोचकों को सर्वोत्तम जवाब यही होगा कि उक्त अवधि में कुछ नतीजे दिखा दिए जाएं। मसलन, पहले कार्यकाल से भू व श्रम सुधार बिल बाहर निकाले, उनमें सुधार लाएं और उन्हें इस लक्ष्य से स्वीकार्य बनाएं कि इस बार वह राज्यसभा से पारित हो जाएं। वित्तमंत्री को सार्वजनिक उपक्रमों (एयर इंडिया के अलावा) की बिक्री की समयबद्ध योजना सामने रखकर अपने साहसी विनिवेश लक्ष्य पर तेजी से अमल करना चाहिए। इस तरह के कदमों से जीडीपी लक्ष्य के प्रति लोगों का भरोसा पैदा होगा। हर तिमाही में राष्ट्र के सामने प्रगति की रिपोर्ट प्रस्तुत करने से मोदी 2.0 के विज़न में लोगों का भरोसा और मजबूत होगा।