कई मायनों में यह माह बहुत उत्साहजनक रहा है। भारत में हो रहे विशाल चुनाव मेले को लेकर टीवी स्क्रीन पर जो कुछ देखने-सुनने को मिला वह बहुत ही आश्चर्यजनक है। मेरे मन-मस्तिष्क को जो तस्वीर सर्वाधिक कुरेदती है वह है पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे में रहने वाले एक मुस्लिम लड़के फरीद का आत्मविश्वास भरा रवैया। जब एक खबरिया चैनल की महिला पत्रकार ने उस लड़के का नाम पूछा तो उसने चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए उत्तर दिया कि आखिर इसकी परवाह ही किसे है? उसने गर्वपूर्वक बताया कि जिस पक्की गली में हम लोग खड़े हैं, वह बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ जब एक कच्ची सड़क थी। कैमरे के सामने उसने हजामत की तीन दुकानों की तरफ इशारा किया। साथ ही, उसने वहां दो ब्यूटी पार्लर, एक इलेक्ट्रॉनिक स्टोर और एक अधूरे पड़े टॉवर को भी दिखाया।
फरीद ने यह भी बताया कि पहले वह फूल बेचने का एक छोटा कारोबार करता था और आसपास के शहरों में अपनी मोटरसाइकिल से फूल पहुंचाया करता था, लेकिन पिछले दो वर्षो में उसका यह कारोबार प्रभावित हुआ और बाजार में फूलों की मांग घट गई। इस कारण उसके तमाम मित्रों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। मैडमजी, क्या आप सोचती हैं कि मैं आप जैसी एक खूबसूरत महिला से महज गपशप कर रहा हूं। महिला पत्रकार थोड़ी लज्जित हुई। फरीद ने कहा यही कारण है कि मैं मोदी को वोट देने की सोच रहा हूं। फरीद ने यह भी कहा कि मैं जानता हूं कि मुस्लिम और मोदी एक साथ नहीं हो सकते थे, लेकिन वह आर्थिक विकास और रोजगार सृजन की बात कर रहे हैं। फरीद और उस जैसे लाखों युवा भारतीयों की उम्मीदों के मद्देनजर मैंने अपने पिछले लेख में नरेंद्र मोदी का समर्थन किया था। इसके लिए मुझे तमाम आलोचना भरे खत मिले। भाजपा समर्थक इसलिए खिन्न हुए, क्योंकि मैंने मोदी को सांप्रदायिक बताया था। उन लोगों ने मुझे सेक्युलरिज्म का सही अर्थ समझाने की काफी कोशिश की तो कांग्रेस के मित्रों ने मेरे लेख को प्रायोजित करार दिया। मेरे बुद्धिजीवी और अकादमिक मित्रों ने भी मेरी निंदा की और कहा कि मैं आर्थिक विकास के लिए पवित्र सेक्युलरिज्म को किस तरह दरकिनार कर सकता हूं? मैंने पाया कि इस लेख के बाद हर किसी को मैंने अपना दुश्मन बना लिया, इसका मतलब है कि मैंने अवश्य कुछ सही काम किया।
मुंबई के एक मेरे मित्र ने बड़ी मायूसी के साथ ट्वीट किया कि विकास और सेक्युलरिज्म साथ-साथ क्यों नहीं हो सकते? यह एक आदर्श हो सकता है, लेकिन बिना मस्तिष्क का प्रयोग किए। हालांकि वर्तमान चुनाव में ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं आया। किसी भी उम्मीदवार ने इन दोनों का प्रस्ताव नहीं रखा। हममें से कोई भी सेक्युलरिज्म को छोड़ना नहीं चाहता, लेकिन यदि आर्थिक विकास सतत रूप से गिरता है तो यह एक ऐसा सेक्युलरिज्म है, जो कहीं अधिक खतरनाक है। इतिहास बताता है कि बेरोजगारी और हताशा की स्थिति में दक्षिणपंथी तत्वों का उभार हुआ है। यह केवल आर्थिक विकास ही है जिससे हम सांप्रदायिक भावनाओं को खत्म कर सकते हैं। आर्थिक विकास की जरूरत बेरोजगारी के लिए ही नहीं, बल्कि शांति, सांप्रदायिकता से निपटने और अन्य बातों के लिए भी आवश्यक है। मैं कहना चाहूंगा कि मोदी को वोट देना जोखिम भरा हो सकता है, लेकिन उन्हें वोट न देना और अधिक जोखिम होगा, क्योंकि वह रोजगार, आर्थिक विकास और जनसांख्यिकीय लाभ के लिहाज से भारत के लिए सर्वाधिक उपयुक्त व्यक्ति हैं। अगले सप्ताह देश में एक नई सरकार होगी। वर्तमान चुनावों में मोदी सबसे आगे दिख रहे हैं। यदि चुनाव आकलन सही साबित हुए (हालांकि 2004 और 2009 में ऐसा नहीं हुआ) तो मोदी प्रधानमंत्री चुन लिए जाएंगे और इस तरह उनकी पहली प्राथमिकता मुस्लिमों को यह भरोसा दिलाना होगा कि वह सभी भारतीयों के नेता हैं और उनकी सरकार 2002 जैसी घटनाओं को पुन: नहीं होने देगी। उन्हें संघ परिवार और सरकारी अधिकारियों को भी साफ संदेश देना होगा कि दिन-प्रतिदिन अल्पसंख्यकों के साथ, विशेषकर राज्यों में होने वाले भेदभाव को रोकने के लिए वह प्रतिबद्ध हैं। पाकिस्तान सरकार की खुफिया एजेंसी आइएसआइ नरेंद्र मोदी के संदर्भ में भारतीय मुस्लिमों के ध्रुवीकरण का प्रयास कर सकती है। मुंबई जैसे आतंकी हमले दोहराए जा सकते हैं, जिससे इन दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ सकता है। नरेंद्र मोदी को इस जाल में नहीं फंसना चाहिए।
उनकी अन्य प्राथमिकता मुख्यमंत्रियों के साथ सहभागिता कायम करने की होगी और सभी को साथ लेकर चलना होगा ताकि वास्तविक फेडरलिज्म अथवा संघवाद की स्थापना हो सके। तीन बार मुख्यमंत्री रहने के कारण यह बहुत स्वाभाविक है। इस तरह की सहभागिता से सुधार कार्यो को तेजी से आगे बढ़ाया जा सकेगा। अरुण शौरी ने हाल ही में संविधान के अनुच्छेद 254 (2) का उल्लेख किया जो कि राज्य के कानून को केंद्रीय कानून पर प्रभुता देता है, जिस पर राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक होती है। स्वाभाविक है कि मोदी सरकार इसके पक्ष में होगी। यदि कुछ राज्यों ने सुधारों पर अमल की शुरुआत कर दी तो दूसरे भी इसके लाभों को देखते हुए अनुसरण करना शुरू कर देंगे। मुख्यमंत्रियों के साथ सहभागिता से बिजनेस बढ़ेगा और भारत अधिक प्रतिस्पर्धी बनेगा। इस तरह जो निवेशक चीन, वियतनाम, थाईलैंड और बांग्लादेश भाग रहे हैं वे भारत की ओर मुड़ेंगे।
यदि मोदी चुने जाते हैं तो उन्हें अपने हर दिन की शुरुआत फरीद और उसके जैसे लाखों लोगों को याद करके करनी चाहिए, जिनके कारण वह चुने गए। लोगों को उनसे बहुत उम्मीदें हैं, वह नौकरियां और कौशल प्रशिक्षण चाहते हैं। फिलहाल निवेश, रोजगार सृजन तथा विकास का काम पीछे छूटा हुआ है। निवेश को रोजगार और उत्पादन में बदलने के लिए वर्षो का समय लगेगा। महंगाई को रोकना भी एक बड़ा मुद्दा है और इसमें भी समय लगेगा। आरबीआइ के गवर्नर रघुराम राजन एक अच्छे सहयोगी हैं, जिन्हें आगे भी बरकरार रखना चाहिए और उनसे सलाह लेनी चाहिए।
आर्थिक स्वतंत्रता के मामले में गुजरात को नंबर एक बनाने के रूप में मोदी के पास बेहतर फॉर्मूला है। निजी क्षेत्र को पहल के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए। संप्रग सरकार ने लालफीताशाही खत्म करने के लिए कुछ भी नहीं किया। आर्थिक विकास आर्थिक स्वतंत्रता पर निर्भर करता है, जितनी अधिक स्वतंत्रता उतना अधिक विकास। मोदी को गुजरात मॉडल के अन्य पहलुओं पर ध्यान देना होगा जिसमें बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए सड़कों, ऊर्जा संयत्रों और बंदरगाहों का विकास शामिल है, ताकि निजी क्षेत्र को सशक्त बनाया जा सके। उन्हें नौकरशाही को भी मजबूत करना होगा, लेकिन यह भी सुनिश्चित करना होगा कि सही काम करने वाले प्रतिभाशाली लोग भी हैं। सरकारी अधिकारियों को साफ-साफ कहा जाना चाहिए कि उनका काम कानून और व्यवस्था तथा जनसुविधाओं यथा बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सेवाओं को सुनिश्चित करना है। और अंत में यह कि मोदी संस्थाओं को तोड़ें-मरोड़ें नहीं, उनका आदर-सम्मान करें, लेकिन उनमें सुधार भी करें।