आने वाले कुछ सप्ताह में मैं मतदान करने के लिए जाऊंगा। मतदान बूथ पर मेरा सामना खामियों-खराबियों वाले उम्मीदवारों से होगा, लेकिन मेरे सामने उसे चुनने की मजबूरी होगी जिसमें सबसे कम खामी होगी। यहां सवाल यही है कि किस आधार पर मैं अपनी पसंद के उम्मीदवार का चयन करूं? सामान्य सी बात है कि मैं उस उम्मीदवार को वोट देना पसंद करूंगा जो करोड़ों भारतीयों के जीवन में संपन्नता-समृद्धि लाने में मददगार हो। इस संदर्भ में भ्रष्टाचार, महंगाई, सेक्युलरिज्म और आतंकवाद जैसी बातें भी अपेक्षाकृत कम महत्व रखती हैं। कोई भी भारतीय तब तक चैन से नहीं रह सकता जब तक कि सभी भारतीय अपनी जरूरतों को पूरा करने के संदर्भ में दिन-प्रतिदिन की चिंताओं से मुक्त नहीं हो जाते। सभी राजनेता गरीबों के प्रति अपनी चिंता दर्शाते हैं, लेकिन करोड़ों गरीब और निम्न मध्यम वर्ग के भारतीय गरीबी रेखा से थोड़ा ही ऊपर जीवन-यापन कर रहे हैं, जो अपने आर्थिक जीवन में सुधार के हकदार हैं।
सभी भारतीयों के जीवन में समृद्धि लाने के क्रम में मैं दो आधारों पर उम्मीदवारों का चयन करूंगा। इसमें पहला आधार क्रियान्वयन की क्षमता है। किसी काम को करने की क्षमता को मैं किसी विचार को हासिल करने से बेहतर मानता हूं। वादा तो कोई भी कर सकता है, लेकिन यथार्थ के धरातल पर उसे कुछ लोग ही उतार सकते हैं। मैं उस उम्मीदवार को वोट दूंगा जो विचार और क्त्रियान्वयन के बीच के अंतर को पाट सके। मेरा दूसरा आधार भारत के सीमित अवसरों से जुड़ा हुआ है, जो महज दस वषरें में खत्म हो जाएंगे। इस अवसर का आधार है जनसंख्या लाभ की स्थिति। यह एक तथ्य है कि भारत ऐसा युवा देश है जहां की अधिसंख्य आबादी कामगार वर्ग में शामिल है। जनसंख्या के लिहाज से जैसी हमारी स्थिति है वह हमें आर्थिक लाभ की स्थिति प्रदान करती है, क्योंकि उत्पादक वर्ग के लोगों की संख्या अधिक है जो गैर उत्पादक वर्ग को सहयोग देने की स्थिति में हैं। विश्व बैंक के मुताबिक लाभ की यह स्थिति प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति जीडीपी विकास में दो फीसद का अतिरिक्त योगदान देती है। पूर्व-पश्चिम के सर्वाधिक सफल देश जनसंख्यात्मक लाभ से भलीभांति अवगत हैं। हाल के वषरें में चीन को भी यह उपलब्धि मिली है। मैं उसे वोट दूंगा जो जनसंख्यात्मक लाभ की शक्ति को समझेगा और उसके अनुरूप एजेंडा तय करेगा। इसके लिए बुनियादी ढांचे में निवेश करना होगा, कौशल प्रशिक्षण देना होगा और गैर उत्पादक सब्सिडी में कटौती करनी होगी। उद्यमियों के लिए निवेश का माहौल बनाना होगा, जिससे बड़ी तादाद में नए रोजगार पैदा होंगे।
गरीबों को सब्सिडी की नीति के बजाय इस तरह के कदमों से दीर्घकालिक समृद्धि आएगी। जब लोगों को रोजगार मिलेगा तो वह अधिक उपभोग करेंगे, जिससे उद्योगों को ताकत मिलेगी। इससे वह अधिक बचत कर सकेंगे, जिससे हमारे देश की पूंजी में इजाफा होगा। इसका असर आगे चलकर अधिक निवेश और विकास में झलकेगा। अभिभावक और कर्मचारी अपने बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर अधिक खर्च करेंगे, जिससे भविष्य में हमें अधिक उत्पादक श्रमशक्ति हासिल होगी। अधिक उत्पादन से महंगाई भी नीचे आएगी। उच्च आय और कम सब्सिडी से देश की राजकोषीय स्थिति मजबूत होगी और सरकार तब शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबों के कल्याण के लिए अधिक काम कर सकेगी। जाहिर है हमें देखना होगा कि प्रतिस्पर्धी दलों में इसके लिए कौन अधिक बेहतर है। इसके लिए क्षेत्रीय पार्टियां उपयुक्त नहीं, क्योंकि वे मुख्यतया क्षेत्रीय मुद्दों पर केंद्रित होती हैं। वे धर्म व जाति के कार्ड खेलने में महारत रखती हैं, लेकिन आर्थिक विकास पर शायद ही बोलती हैं। आम आदमी पार्टी की मुख्य चिंता भ्रष्टाचार और क्रोनी कैपिटलिज्म है, न कि निवेश और नौकरियों का सृजन। क्षेत्रीय दलों और उनके नेताओं को वोट देना अपने मत को बेकार करना होगा, जैसे कि सपा के मुलायम सिंह, बसपा की मायावती और यहां तक आप के केजरीवाल को भी। दो राष्ट्रीय दलों में कांग्रेस के भीतर बैठे सुधारवादी जनसंख्यात्मक लाभ की शक्ति को अच्छी तरह समझते हैं, लेकिन वे कुछ कर पाने में असमर्थ हैं, क्योंकि सत्ताधारी वंश विकास का बहुत इच्छुक नहीं।
सोनिया और राहुल गांधी गरीबों को तत्काल कुछ दिए जाने के पक्ष में हैं, बजाय इसके कि नौकरियों और रोजगार के माध्यम से सतत चलने वाली विकास प्रक्त्रिया का इंतजार करें। उनकी प्राथमिकता सड़कें और ऊर्जा संयंत्र नहीं, बल्कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये खाद्यान्न वितरण, बिजली सब्सिडी और गैस सिलेंडरों में रियायत, मनरेगा तथा दूसरी कल्याणकारी योजनाएं हैं। इस नीति की वजह अधिकाधिक वोट पाने की मंशा है, लेकिन इससे विकास दर गिरती है, महंगाई बढ़ती है और दूसरी तमाम समस्याएं पैदा होती हैं। विकास और समानता की गलत नीति के कारण संप्रग सरकार ने सुधारों को रोक दिया और बुनियादी ढांचे पर ध्यान नहीं दिया। इससे निवेशकों का भरोसा भी टूटा। परिणामस्वरूप भारत की विकास दर नौ फीसद से गिरकर 4.5 फीसद पर पहुंच गई। इस वजह से मैं नहीं मानता कि कांग्रेस पार्टी जनसंख्यात्मक लाभ को समझने में समर्थ है। कांग्रेस संप्रग सरकार के काल में रुकी पड़ीं 750 बड़ी परियोजनाओं को शुरू करा पाने में भी समर्थ नहीं, क्योंकि सरकार में ही सत्ता के दो केंद्र हैं और हमारी नौकरशाही भ्रमित है। इसी का परिणाम अप्रत्याशित भ्रष्टाचार और अन्य नीतिगत अपंगताएं हैं। पिछले दस वषरें को देखें तो भाजपा ने भी रचनात्मक विपक्ष की भूमिका नहीं निभाई। इसने कांग्रेस के विकास विरोधी रवैये का सही तरह विरोध नहीं किया, लेकिन पिछले वर्ष से नरेंद्र मोदी के कारण उसकी सोच में जबरदस्त बदलाव आया है। उन्होंने विकास के एजेंडे के तहत निवेश, रोजगार, कौशल प्रशिक्षण और बुनियादी ढांचे पर ध्यान दिया। मोदी एक बेहतर प्रशासक और अच्छे क्त्रियान्यवनकर्ता हैं। वह विकास प्राथमिकताओं पर नजर रखते हैं, लाल और हरी फीताशाही को रोकते हैं और सेवा में सुधार के पक्षधर हैं। हालांकि केंद्र में गठबंधन के कारण उनके लिए यह सब आसान नहीं होगा, लेकिन उनमें समस्याओं पर जीत हासिल करने वाले एक राजनेता के सभी गुण हैं।
मोदी मेरे दोनों ही पैमानों पर खरे उतरते हैं। इसी कारण मैं भाजपा को वोट देना चाहता हूं। मैंने पहले कभी भाजपा को वोट नहीं दिया, क्योंकि उसकी राजनीति बहुसंख्यकवादी और हिंदुत्व के एजेंडे पर आधारित थी। यदि लालकृष्ण आडवाणी या पुराने लोग इसका नेतृत्व करते हैं तो भी मैं इसे वोट नहीं दूंगा, क्योंकि उनकी आर्थिक सोच भ्रमित है। मैं मोदी की एकाधिकारवादी और गैर-सेक्युलर प्रवृत्तिसे चिंतित हूं, लेकिन कोई भी अन्य पूर्ण योग्य नहीं है। मुझे विश्वास है कि अगले पांच वषरें तक 2002 जैसा कुछ नहीं होगा। मैं मोदी को वोट देने का जोखिम लेना पसंद करूंगा, क्योंकि मैं जनसंख्यात्मक लाभ को खोना नहीं चाहता। एक गरीब देश में रोजगार सृजन पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। जीडीपी में एक फीसद विकास से 15 लाख रोजगार पैदा होते हैं और प्रत्येक रोजगार से अप्रत्यक्ष तौर पर तीन लोगों को रोजगार मिलता है और प्रत्येक रोजगार से पांच लोगों की आजीविका चलती है।