फिर खबरों में है असमानता। फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी भारत में आए तो दुनिया में असमानता पर खूब बोले। उनका समाधान था अत्यधिक धनी लोगों पर टैक्स। फिर भारतीय कंपनियों में भुगतान में बढ़ते फर्क पर रिपोर्ट आई। सीईओ की बड़ी तनख्वाहों पर आक्रोश जताया गया। टीवी चैनल विजय माल्या की जीवनशैली पर टूट पड़े, जो खतरे में पड़े हमारे बैंकों के कर्जदार हैं।
भारत में विकास के इस स्तर पर हमें अवसर निर्मित करने और घोर गरीबी घटाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। जब तक अंबानी ढेर सारी नौकरियां निर्मित करते हैं, अपने कर चुकाते हैं और समाज के लिए संपदा निर्मित करते हैं, मुझे इससे मतलब नहीं है कि वे कितना कमा रहे हैं। दूसरों की जीवनशैली का आकलन चीजों पर नियंत्रण का लालच पैदा करता है, जो एकाधिकारवादी समाज की ओर बड़ा कदम है। आडंबरपूर्ण जिंदगी न जीना धार्मिक आह्वान है, कानूनी कर्तव्य नहीं।
भारत ने मोदी को चुना ही इसलिए कि उन्होंने चर्चा को असमानता से हटाकर अवसरों पर केंद्रित कर दिया। दुर्भाग्य से अर्थव्यवस्था अब भी संकट में है और उन्होंने वादा पूरा नहीं किया है। इसीलिए आगामी बजट नौकरियां निर्मित करने पर केंद्रित होना चाहिए।
सरकार आधारभूत ढांचे में निवेश के जरिये नौकरियां पैदा कर सकती है, लेकिन बहस यह है कि क्या जेटली को वित्तीय घाटे का लक्ष्य हासिल करने का वादा तोड़कर, यहां भारी निवेश करना चाहिए। चूंकि पिछली तारीख से टैक्स लगाने के कारण भारत भरोसा और बिज़नेस करने की जगह के रूप में प्रतिष्ठा खो चुका है, मैं चाहूंगा कि वे अपना वादा पूरा करें। उन्हें निजी कंपनियों (एसयूयूटीआई) में मौजूद सरकारी शेयर बेचकर पैसा खड़ा करना चाहिए। सार्वजनिक उपक्रमों के शेयर भी बेचने चाहिए। बीमार सरकारी बैंकों का सबसे पहले विनिवेश करना चाहिए। सरकार बैंकों में अपनी हिस्सेदारी 50 फीसदी से नीचे लाए। इससे यह संदेश जाएगा कि मोदी सुधारों के साथ भारत को बिज़नेस अनुकूल बनानेे को लेकर भी गंभीर हैं। जिंदगी में अच्छी शुरुआत से अवसर मिलते हैं। यदि असमानता पूरी तरह खत्म करना अवास्तविक लक्ष्य है, तो शिक्षा व स्वास्थ्य रक्षा के जरिये अवसरों की समानता हासिल करने योग्य है। भारत को स्वास्थ्य व शिक्षा व्यवस्था से निकलने वाले छात्रों की गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए। उसके लिए व्यवस्था करनी चाहिए। बजट को इस मानक पर भी देखा जाएगा।
नागरिकों के भविष्य के अवसरों में व्यापक अंतर से कई रुष्ट होते हैं। प्रकृति के पक्षपात पर भी हम बेचैन होते हैं- किसी सुंदर चेहरे को नौकरी में उस व्यक्ति से अधिक पैसा क्यों मिलना चाहिए, जो कड़ी मेहनत कर समाज में अधिक योगदान देता है? काम की जगह पर पदों की ऊंच-नीच की मानसिकता भी आहत करती है। व्यवस्थित समाज में संस्थाएं ऐसे बनाई जाती है कि संपन्न को मिल रहे फायदे को निचले तबके की स्थिति सुधारने के पुरस्कार के रूप में देखा जाता है। अमेरिकी चिंतक जॉन राल्स ने इस विचार को अपनी ख्यात पुस्तक ‘थ्योरी ऑफ जस्टिस’ में अच्छी तरह समझाया है।
विदेशी यहां आते हैं तो उन्हें ताज्जुब होता है कि कम्युनिज्म की मौत के साथ जो विवाद खत्म हो गया उस पर हम अब भी बहस कर रहे हैं। एक फ्रेंच विद्वान ने कहा, ‘जहां आप बहस करते हैं कि आर्थिक वृद्धि गरीब विरोधी या उसके हित में है, वहीं चीन काम में लगकर तरक्की लाता है और लाखों लोगों को गरीबी से उबार लेता है।’
तो आइए, असमानता की बात छोड़ें, बशर्ते इससे अपराध बहुत न बढ़े हों और बहुत नुकसान न हो रहा हो। विकसित पश्चिम में असमानता समस्या हो गई है, जहां नौकरियां जाने से मध्यवर्ग तकलीफ में है। किंतु भारत में हमें कुछ लोगों के बहुत अधिक धनी होने की चिंता नहीं करनी चाहिए, जो समाज की संपदा बढ़ाते हैं और निवेश के लिए अतिरिक्त पैसा पैदा करते हैं। हमें अवसरों की समानता के लिए लड़ाई जारी रखनी चाहिए।