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अब नौकरियां पैदा करने पर ध्यान दें

Submitted by shashi on Wed, 02/03/2016 - 10:27
Feb 3rd 2016

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह करो या मरो जैसा वर्ष है। यदि 2016 में आर्थिक वृद्धि महत्वपूर्ण तरीके से नहीं बढ़ती और थोक में नौकरियां पैदा नहीं होतीं, तो हम अच्छे दिन भूल ही जाएं यही बेहतर होगा। रोजगार पैदा करने और गरीब देश को धनी बनाने का आदर्श नुस्खा तो श्रम-बल वाले, निम्न टेक्नोलॉजी के थोक उत्पादन का निर्यात है। इसी ने पूर्वी एशिया, चीन और दक्षिण-पूर्वी एशिया को मध्यवर्गीय समाजों में बदला। पिछले 60 वर्षों में भारत मैन्यूफैक्चरिंग की बस में सवार होने से चूकता रहा है और आज वैश्विक प्रति व्यक्ति आय के छठे हिस्से से भी कम के साथ भारत सबसे गरीब बड़ी अर्थव्यवस्था है। उसका स्तर लाओस, जाम्बिया और सुडान से भी नीचे है, जैसा कि टीएन निनान ने अपनी नई किताब, ‘द टर्न ऑफ द टॉरटॉइज़’ में याद दिलाया है।

1960 की शुरुआत में दुनिया को जल्द ही साफ हो गया कि जापान खिलौने, जूते और बड़े पैमाने पर उत्पादित साधारण वस्तुओं के निर्यात के जरिये बड़ी संख्या में नौकरियां पैदा कर रहा है। कोरिया, ताईवान, हॉन्गकॉन्ग और सिंगापुर ने जापान की राह पकड़ी। वे सभी ऊंची वृद्धि दर वाली अर्थव्यवस्थाएं बन गए, गरीबी को मिटा डाला और पहली दुनिया के देश हो गए। दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों ने 70 के दशक में जापान की नकल की और मध्य-आय वाली अर्थव्यवस्थाओं के सम्मानित देश बने। 60 फीसदी मध्य वर्ग के साथ चीन इस मॉडल की सफलता की नवीनतम गाथा है। हमने मोदी को चुना, क्योंकि उन्होंने मैन्यूफैक्चरिंग की बस में सवारी का वादा किया था, लेकिन अब तक तो नौकरियों का अता-पता नहीं है। जब वे मई 2014 में निर्वाचित हुए तो अपेक्षाएं इतनी ऊंची थीं कि अर्थशास्त्रियों को उन्हें आगाह करना पड़ा कि जो अर्थव्यवस्था उन्हें मिली है, वह इतनी खराब दशा में है कि उसकी दिशा बदलने के लिए वक्त लगेगा। उन्होंने बताया कि एक प्राकृतिक निवेश चक्र होता है और ऊंची आर्थिक वृद्धि पर लौटने में दो साल लगेंगे। मोदी यह सब लोगों को समझाया होता तो आज इतनी निराशा की स्थिति नहीं होती।

हां, अर्थव्यवस्था ऊपर तो उठी है, लेकिन उपभोक्ताओं की मांग अब भी बहुत कमजोर है। कंपनियों पर ऊंचे कर्ज का बोझ है और वे खराब नतीजे दे रही हैं, इसीलिए न तो वे निवेश कर रही हैं और न नए कर्मचारियों को नौकरियों पर रख रही हैं। इसी कारण मांग कमजोर है। बैंक संकट में हैं, क्योंकि उनसे लोन लेने वाली कंपनियों ने भुगतान नहीं किया है। उन्होंने नए निवेशकों को लोन देना बंद कर दिया है, जो नई नौकरियां और मांग पैदा कर सकते थे। किंतु मोदी के लिए समय हाथ से निकलता जा रहा है। अर्थव्यवस्था में दो प्रतिशत बिंदु की आर्थिक वृद्धि होगी तो ही हर साल 1.20 करोड़ नई नौकरियां पैदा होंगी और मोदी वादे पर खरे उतर पाएंगे।

इस नाकामी के लिए मोटेतौर पर नेहरू का समाजवादी मॉडल जिम्मेदार है, लेकिन इसके लिए नेहरू को व्यक्तिगत रूप से दोष नहीं दिया जा सकता- वे काफी कुछ समाजवादी युग की ही देन थे और सोवियत संघ की कामयाबी से इतने मोहित थे कि उन्होंने पूरब में जापान को देखा ही नहीं। इंदिरा गांधी ने ‘एशियाई शेरों’ से सीख लेने का विश्व बैंक का सुझाव ठुकरा दिया। इसकी बजाय उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया, सनकभरे अन्य कदम उठाए और भारत पूरी एक पीढ़ी पिछड़ गया।

वर्ष 1991 में आर्थिक सुधारकों ने एशियाई मॉडल अपनाने का कठोर प्रयास किया, लेकिन लालफीते का समाजवादी माहौल, कमजोर आधारभूत ढांचा और खराब रवैया आड़े आ गया। मसलन, लुघ उद्योग क्षेत्र के लिए 800 उद्योगों को आरक्षित करने के कदम ने निर्यात को चोट पहुंचाई, क्योंकि प्रतिस्पर्द्धी राष्ट्रों ने अधिक उत्पादनशील बड़ी निर्यात कंपनियां बनाईं। हालत तो यह हुई कि तैयार वस्त्रों के निर्यात में बांग्लादेश हमसे आगे निकल गया।

नौकरियां आएंगी कहां से? कुछ लोगों का मानना है कि मैन्यूफैक्चरिंग युग खत्म हो गया है। यह बहुत स्वचालित हो गया है और अकुशल खेतिहर मजदूरों के लिए नौकरिया पैदा नहीं कर सकता। कुछ हद तक तो यह सही है, लेकिन मुझे लगता है कि वैश्विक व्यापारिक निर्यात अब भी बहुत बड़ा है। पिछले साल यह 18 खरब डॉलर था। अकेले चीन ने 2.30 खरब डॉलर का निर्यात किया। इन नौकरियों को आकर्षित करने की भारत की उम्मीद ‘व्यवसाय करने की आसानी’ की मुहिम पर निर्भर है। दीवालिया होने संबंधी नया कानून, वाणिज्यिक अदालतें और राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण इसकी अब तक की बड़ी उपलब्धियां हैं। निवेश के लिए राज्यों के बीच स्पर्द्धा में भी सफलता निहित है और इसका फायदा मिल रहा है- राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश और आंध्र प्रदेश, इन चार राज्यों ने गंभीर श्रम सुधारों को कानूनी रूप दिया है।

भारत चाहे मैन्यूफैक्चरिंग क्रांति चूक गया हो, लेकिन यह सेवाअों के जरिये ऊंची वृद्धि दर वाली अर्थव्यवस्था बना है और हमें इसे कम करके नहीं आंकना चाहिए। उदाहरण के लिए भारत में बेची गई तीन में से एक कार, ड्राइवर का जॉब पैदा करती है। हर साल 25 लाख कारें बिकती हैं, जिसका अर्थ है ड्राइवर के 8 लाख जॉब। इसमें प्रतिवर्ष व्यावसायिक वाहनों के 7 लाख ड्राइवर और जोड़ें। 2020 तक ई-कॉमर्स बिक्री के संदर्भ में 13 लाख विक्रेताओं के ऑनलाइन होने के साथ 90 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा। प्रत्येक विक्रेता चार सीधे जॉब और भंडारण, डिलिवरी तथा अन्य सहायक सेवाओं में 12 अप्रत्यक्ष नौकरियां निर्मित करता है। कुल-मिलाकर दो करोड़ नौकरियां निर्मित होती हैं। यदि इनमें से आधी चाहे क्रमश: पैदा हो, लेकिन फिर भी एक करोड़ जॉब तो पक्के हैं।

देश में इस समय स्टार्टअप का जुनून छाया हुआ है और सैकड़ों युवा कॉर्पोरेट जॉब छोड़कर आंत्रप्रेन्योर बन रहे हैं। यह पहली सरकार है, जिसने युवा उद्यमियों को बढ़ावा देने का महत्व समझा है। इसके ‘स्टार्टअप इंडिया’ अभियान के तहत नए नियमों की घोषणा की गई है, जो लालफीताशाही पर लगाम लगाएंगे, इंस्पेक्टरों की बजाय स्वप्रमाणीकरण का मतलब है अनुमति लेना आसान होगा।

नए आंत्रप्रेन्योर को किसी दफ्तर जाने की जरूरत नहीं है- सिर्फ एप डाउनलोड करके वह पंजीयन करा सकेगा, मंजूरी ले सकेगा और करों का भुगतान कर सकेगा। राजनेताओं को हमेशा याद दिलाना पड़ता है कि उन्हें क्यों चुना गया था। ‘अच्छे दिन’ नौकरियों और अवसरों का कोड वर्ड है। मोदी ने विदेशी मामलों में अच्छा काम किया है, लेकिन देश ने उन्हें नौकरियां निर्मित करने के लिए चुना है। वे यदि विदेशी दौरे अपनी काबिल मंत्री सुषमा स्वराज पर छोड़कर पूरी एकाग्रता से नौकरियों, आर्थिक वृद्धि और अच्छे दिन पर लग जाएं तो बेहतर होगा।