अपनी खुली और उल्ला सपूर्ण भारतीय परम्पराओं से सीखकर पुरानी रूढ़ियों से मुक्त होना होगा
मेरा बेटा समलैंगि क है और अब मुझे इसे स्वीकार करने में कोई डर नहीं है। वह बीते 20 वर्षों से अपने पार्टनर के साथ आपसी विश्वा स और प्रसन्नता भरी ज़ि ंदगी बि ता रहा है। मेरे परिवार व नज़दीकी मित्रों ने इसे गरिमापूर्वक स्वी कार कि या है। लेकि न, मैं इसके बारे में सार्वजनि क तौर पर बोलने से डरता था कि कहीं उसे कोई नुकसान न हो जाए। पि छले माह सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगि कता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया। मेरी पत्नी और मुझे अचानक लगा कि जैसे बहुत बड़ा बोझ सि र से उतर गया है। मुख्य न्या याधीश के बुद्धिमत्ता भरे शब्द मेरे कानों में गूंज रहे थे, 'मैं जो हूं, वैसा हूं, इसलि ए मुझे उसी रूप में स्वी कार कीजिए।
157 साल तक भारतीय इस तानाशाही औपनिवेशिक कानून के तहत रहे, जो हमारे देश की प्राचीन भावना के विपरीत था। इस बीच अंग्रेजों को अपनी गलती का अहसास हुआ कि 'यौन रुझान प्राकृति क होता है और लोगों का इस पर कोई नि यंत्रण नहीं होता' (जैसा कि कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है) और उन्होंने ब्रिटेन में यह कानून बहुत पहले खत्म कर दि या। त्रासदी यह रही कि औपनि वेशि क ब्रेनवाशि ंग इतनी गहरी थी कि यह थोपी गई गैर-भारतीय धारणा भारतीय कानून की कि ताब में अंग्रेजों के जाने के 71 साल बाद तक बनी रही। अगस्त 1947 में मैं इतना छोटा था कि राजनीति क रूप से स्वतंत्र होने का अर्थ समझ नहीं सकता था लेकि न, निश्चि त ही मैं इतना वयस्क हो चुका था कि जुलाई 1991 में अपनी आर्थिक स्वतंत्रता का जश्न मना सकूं। और 6 सितंबर 2018 को मैं इतना बुजुर्ग भी नहीं हुआ था कि अपनी 'भावनात्मक स्वतंत्रता' की सराहना न कर सकूं। भारत संक्रमण से गुजरता हुआ परम्परा से आधुनि कता में जा रहा है। हम बहुत समय तक अपनी भावना का दमन करके पि तृसत्तात्मक रूढ़ि ओं के साथ जीवन जीते रहे हैं।
हालांकि , न्यायाधीशों ने अपने ऐतिहासिक फैसले के समर्थन में महान पश्चिमी लेखकों को उद्धृत किया है लेकिन, वे भारतीय शास्त्रों को भी उद् धृत कर सकते थे, जि न्होंने लैंगि ंक अस्पष्ट ता के लि ए असाधारण सहनशीलता दिख ाई है। इन्हें तथ्या त्मकता के साथ बि ना कि सीशर्म या अपराध-बोध के बताया गया है। वनि ता और कि दवई की कि ताब 'सेम सेक्स लव इन इंडिया : रीडि ंग्स फ्राम लिट रेचर एंड हिस्ट्री' में बहुत उदाहरण हैं।
भारत एकमात्र ऐसी सभ्यता है, जिसने 'काम' अथवा कामना व सुख को जीवन का उद् देश्य तय किया। जीवन के अन्य तीन उद्देश्यों अर्थ (भौतिक कल्याण), धर्म (नैतिक कल्याण) और मोक्ष
(आध्यात्मि क कल्याण) के साथ हमसे 'काम' के भावनात्मक कल्या ण का लाभ उठाने की अपेक्षा रहती है। हमें लगातार धर्म यानी दूसरों के प्रति हमारे कर्तव्य की याद दि लाई जाती है लेकि न, यह विचार हमसे छूट जाता है कि काम खुद के प्रति हमारा कर्तव्य है। ईसाई परम्परा के अनुसार शुरुआत में प्रकाश (जेनेसि स) था। ऋग्वे द में शुरुआत में काम था और सृष्टि का निर्मा ण उस 'एक' के मन में मौजूद 'काम' के बीज से हुआ। 'काम' चेतना का पहला कर्म था और प्राचीन भारतीय इसे शक्ति कहते थे। इसके विपरीत 'काम' को ईसाइयत में 'ओरिजि नल सि न' (मूल पाप), अपराध-बोध और शर्म के साथ जोड़ा गया है।
आज के भारतीय मध्यवर्ग के पाखंड के लि ए हम विक्टो रिया युग के लोगों को दोष देते हैं लेकि न, भारतीय मानस की गहराई में 'काम' को लेकर नैराश्य झलकता है। 2500 साल से भी पहले उत्तर भारत के जंगलों में प्राचीन योगि यों, त्यागि यों और बुद्ध को 'काम' के असंतुष्ट रहने वाले चरित्र का बोध हुआ था। योगि यों ने इस अंतहीन, नि रर्थ क, प्रयास को शांत करने के तरीके खोजने चाहे। मन की चंचलता को शांत करने के लि ए पतंजलि ने हमें चित्त वृत्तिनि रोध सिख ाया। शि व ने कामदेव को तब भस्म कर दि या था, जब उसने उनका हजार साल का ध्या न भंग कर दि या था। इसलि ए कामेच्छा मन में अनंग (यानी कायाहीन) रहती है। भगवद गीता का जवाब है निष्का म कर्म लेकि न, यह कठि न है, क्योंकि बृहदकारण्य उपनिष द के अनुसार 'मन ही इच्छा ' है।
राशावादि यों के विपरीत आशावादि यों ने सिख ाया कि काम जीवन ऊर्जा है, एक ब्रह्मांडीय ऊर्जा , जि सने कोशि का को सक्रिय कर इसे सही स्थान दि या। चूंकि काम कर्म, निर्मिति और प्रजनन का स्रोत है इसलि ए उनका आशावाद पहली सहस्त्राब्दी के संस्कृति प्रेम काव्य और 'कामसूत्र' जैसी रचनाओं में चरम पर पहुंचा, जो कोई सेक्स मेन्यु अल नहीं है बल्कि आर्ट ऑफ लि विंग की आकर्षक, आश्चर्य जनक रूप से आधुनि क गाइड है। आशावादि यों और नि राशावादि यों के टकराव के बीच काम-वास्तववादी उभरकर आए, जि न्होंने यह कहकर सुलह की पेशकश की कि सेक्स तब तक ठीक है, जब तक यह विवाह के भीतर रहे। इस पूर्व-आधुनि क समय में उस नकारात्मकता के साथ ब्रिटि श लोगों का प्रवेश हुआ, जि से जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने ति रस्का रपूर्वक 'विक्टो रिया युगीन मध्यवर्गी य नैति कता' कहा था और उन्होंने 377 जैसे कानून बनाए।
सौभाग्य से 1990 के दशक में भारत में अधि क आशावादी युग शुरु हुआ, जब युवाओं के मन से औपनि वेशि क प्रभाव खत्म होने लगा। यह 2009 में चरम पर पहुंचा जब दि ल्ली हाईकोर्ट के जज जेपी शाह ने समलैंगि क संबंधों पर ऐति हासि क फैसला सुनाया। 2013 के बाद जब उच्चतर न्या यालय ने इसे उलटा तो कुछ समय के लि ए हम पीछे लौटें। लेकि न, गत माह के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद काम को लेकर आशावाद के नए युग की शुरुआत हुई। समाज के पूर्वग्र ह पर कोर्ट के फैसले को हावी होने में वक्त लगेगा खासतौर पर उस दौर में जब दक्षि णपंथी नि गरानी दस्ते लव-जि हाद, वेलेन्टा इन डे ( जि से शशि थरूर के मुताबि क 'कामदेव दि वस' नाम दि या जाना चाहि ए) और 'रोमि यो' दस्ते कहर ढा रहे हों।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का निहि तार्थ यह है कि सभ्य होने का मतलब यह कहना है : 'मैं विपरीत लैंगि कता को प्राथमि कता देता हूं पर मुझे समान लैंगि कता के लि ए आपकी प्राथमि कता पर आपत्ति नहीं है।' एक स्वतंत्र, सभ्य देश में हमें अपने से अलग लोगों को सम्मा न देना सीखना ही होगा। राज्य-व्यवस्था को शयन कक्ष से बाहर ही रहना चाहि ए। आइए, हम अपनी खुली, उल्ला सपूर्ण परम्पराओं से सीखें, जहां समृद्ध, फलते-फूलते जीवन का रहस्य जीवन के चार पुरुषार्थ के बीच सौहार्दपूर्ण संतुलन में निहि त है।