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स्कूलों को लाइसेंस राज से मुक्त करना होगा

Submitted by shashi on Sat, 04/21/2018 - 09:43
Apr 21st 2018

स्कूलों को लाइसेंस राज से मुक्त करना होगा

स्कूल खोलने के लिए अब भी 30 से 45 अनुमतियों की जरूरत होती है, स्वायत्तता से ही आएगी गुणवत्ता

सात अप्रैल को देशभर के निजी स्कूल के लोग दिल्ली के रामलीला मैदान पर 'शिक्षा बचाओ' आंदोलन के लिए एकत्रित हुए। देश के सत्तर साल के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ। वे स्कूल शिक्षा में 'लाइसेंस-परमिट राज' का विरोध करते हुए स्वायत्तता व सम्मान की मांग कर रहे थे। अनुमानित 65,000 प्रिंसिपल, टीचर व पालकों में अधिकांश कम फीस वाले स्कूलों के लोग थे लेकिन, नेशनल इंडिपेंडेंस स्कूल अलायंस के तहत कैथोलिक स्कूल जैसे अल्पसंख्यक संस्थान के लोग भी आए थे। 

भारत ऐसा अनोखा देश है जहां दुनिया में सबसे अधिक बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। लगभग आधे शहरी और एक-तिहाई ग्रामीण बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। 2011 और 2015 के बीच सरकारी स्कूलों ने 1.10 करोड़ बच्चे गंवा दिए, जबकि निजी स्कूलों को 1.60 करोड़ बच्चे मिले। उसी समय 11 गुना निजी स्कूल और खुल गए। जहां पहले 8,337 निजी स्कूल थे, अब 96,416 हो गए। यही ऐसा ही रहा तो देश के सरकारी स्कूल कोई छात्र न होने वाले 'भूतहा स्कूल' हो जाएंगे। पहले ही 6,174 ऐसे सरकारी स्कूल हैं, जहां एक भी छात्र नहीं है। ऐसा क्यों हो रहा है? इसलिए क्योंकि चार में से एक शिक्षक उपस्थित नहीं है और दो उपस्थितों में एक पढ़ा नहीं रहा है। असहाय पालकों ने समझ लिया कि 'स्कूलिंग' का मतलब 'लर्निंग' नहीं है। मध्यवर्ग ने एक पीढ़ी पहले ही सरकारी स्कूल छोड़ दिए थे लेकिन, अब तो गरीब भी ऐसा कर रहे हैं। क्योंकि सिर्फ 417 रुपए प्रतिमाह की मध्यम दर्जे की फीस वाले निजी स्कूल आ गए हैं। उनकी गुणवत्ता साधारण होगी पर कम से कम शिक्षक आते हैं और पढ़ाने की पूरी कोशिश करते हैं, क्योंकि वे स्पर्धात्मक बाजार में हैं, जिसमें पालक अपने बच्चे की पढ़ाई की तुलना अन्य स्कूलों के उसके जैसे बच्चों की पढ़ाई से करते हैं। इस तरह अब पालक अपने घरेलू बजट का 24 फीसदी निजी प्राथमिक और 38 फीसदी माध्यमिक शिक्षा पर एक साथ खर्च करते हैं, जबकि सरकारी स्कूलों में मुफ्त शिक्षण, मध्याह्न भोजन,यूनिफॉर्म और किताबें मिलती हैं। 

रामलीला मैदान पर विरोध का एक कारण यह था कि सरकार शिक्षा के अधिकार (आरटीई) के तहत गलत कारण से 1 लाख स्कूल बंद करने की धमकी दे रही है। स्कूलों की दलील है, 'हमें बच्चे के सीखने के आधार पर आंकिए, न कि अन्य बातों के आधार पर। यदि झुग्गी बस्ती का निजी स्कूल 'टॉपर' पैदा कर रहा तो आपको इसकी परवाह क्यों होनी चाहिए कि हम शिक्षक को 45 हजार रुपए प्रतिमाह वेतन नहीं दे सकते(जो दिल्ली में आधिकारिक शुरुआती वेतन है)।' यदि आपका मानक नतीजा हो तो (केंद्रीय व नवोदय विद्यालय) छोड़कर ज्यादातर सरकारी स्कूल बंद करने पड़ेंगे। 

लर्निंग के लिए िनयामकों (रेग्यूरेटर) को कक्षा के भीतर की गतिविधियों में गहराई से जुड़ना होना होगा और आकलन और नियमन की क्षमता में सुधार लाना होगा। अच्छी खबर यह है कि भारत में नई पीढ़ी के नियामक इस बात को समझते हैं। उन्होंने नेशनल अचीवमेंट सर्वे के तहत बच्चों का आकलन शुरू किया है। इसे वे बच्चे का प्रदर्शन सुधारने के औजार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। बुरी खबर यह है कि वे निजी स्कूलों के बच्चों का आकलन नहीं करेंगे। क्या वे भारत के ही बच्चे नहीं हैं?

विरोध प्रदर्शन का दूसरा कारण यह था कि 1991 में उद्योग को मुक्त कर दिया गया पर शिक्षा को नहीं किया गया। हर राज्य के हिसाब से स्कूल खोलने के लिए 30 से 45 अनुमतियों की अब भी जरूरत होती है और कई बार रिश्वत भी देनी पड़ती है। सबसे महंगी रिश्वत जो कुछ राज्यों में 5 लाख रुपए तक है, वह आवश्यकता प्रमाण-पत्र के लिए देनी पड़ती है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि संबंधित जगह पर स्कूल की आवश्यकता है। यह बताते हुए गुजरात के एक प्रिंसिपल की आंखों में तो आंसू आ गए कि उन्हें हर वक्त 70 प्रकार के कागजात तैयार रखने होते हैं, क्योंकि क्या पता कब कोई इंस्पेक्टर प्रकट हो जाए। कई अनुमतियों का हर साल नवीनीकरण करना पड़ता है।

अमेरिका के श्रेष्ठतम निजी स्कूल में पढ़ाने वाली मेरी एक आदर्शवादी मित्र भारत में स्कूल खोलने के लिए लौटीं। लेकिन, घोर भ्रष्टाचार ने उन्हें अमेरिका लौटने पर मजबूर कर दिया। आश्चर्य नहीं कि इतने सारे नेता स्कूल-कॉलेज खोलते हैं, जबकि आदर्शवादी युवा इससे दूर ही रहते हैं। नतीजा यह होता है कि पूरा निजी क्षेत्र ही बदनाम हो जाता है। तीसरा कारण फीस पर नियंत्रण रखने की बढ़ती मांग थी। यह हाल में तेजी से बढ़ी हैं, क्योंकि आरटीई के तहत 25 फीसदी सीटें गरीबों के लिए आरक्षित रखनी होती हैं। यह पहल प्रशंसनीय है पर स्कूल बीच में फंस गए हैं। राज्य सरकारें बीच-बीच में इनका भुगतान करती हैं पर पूरा नहीं करतीं। इस बीच शिक्षकों के वेतन दोगुने-तीन गुने हो गए हैं। इस नुकसान भरपाई की गाज फीस देने वाले 75 फीसदी पालकों पर गिरी है। राजनेता गलतफहमी में 'फीस कंट्रोल' के मामले में कूद पड़े। उन्हें अहसास ही नहीं है कि केवल 3.6 फीसदी स्कूल ही 2500 रुपए प्रतिमाह और केवल 18 फीसदी 1000 रुपए प्रतिमाह से ज्यादा फीस लेते हैं।

फीस नियंत्रण से या तो श्रेष्ठ स्कूल बंद हो जाएंगे या उन्हें अपने प्रोग्राम में कटौती करनी होगी। राज्यों को आंध्रप्रदेश के कानून का अनुसरण करना चाहिए, जो स्कूलों में पारदर्शिता पर जोर देता है। स्कूलों को अपनी वेबसाइट पर वह सब जानकारी देनी पड़ती है जो पालक स्कूल का चयन करने के पहले जानना चाहे। गलत तथ्यों पर भारी जुर्माना देना पड़ सकता है।

रामलीला मैदान पर आखिरी मांग यह थी कि गरीब बच्चों के लिए आरक्षित 25 फीसदी सीटों का पैसा स्कूल की बजाय सीधे बच्चों को दिया जाए। यह 'स्कॉलरशिप' की तरह होना चाहिए ताकि बच्चा अपनी पसंद का कोई भी स्कूल चुन सके। चूंकि बच्चा स्कूल के लिए आमदनी लाएगा तो वह भी सिर उठाकर स्कूल में घूम सकेगा। 

अपनी सारी खामियों के बाद भी दिल्ली सरकार सरकारी स्कूलों में सुधार का जो जुनून दिखा रही है, उसके लिए उसकी सराहना की जानी चाहिए। पर वह भी बच्चा क्या सीख रहा है उसकी बजाय बुनियादी ढांचे पर ही ध्यान केंद्रित कर रही है। इसी आधार पर वह 300 निजी स्कूल को अप्रैल में ही बंद करने की धमकी दे रही है। 'आप' के नेता सुविधाजनक रूप से यह भूल जाते हैं कि लगभग वे सारे ही निजी स्कूलों में मिली शिक्षा के कारण नेता बने हैं। इसके लिए एक शब्द है : कृतघ्नता।